मित्रों,संत कवि गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने महाकाव्य “श्रीरामचरितमानस” में लिखा है कि हमारा
शरीर पांच तत्त्वों से बना है और वे तत्त्व हैं – क्षिति,जल,पावक,गगन,समीरा अर्थात् धरती, पानी, अग्नि, आकाश एवं वायु | ये पाँचों तत्त्व सदैव पारस्परिक सहयोग एवं सेवा भाव से कर्म करते हुए सृष्टि का संतुलन बनाए रखते हैं | इस तरह जगत् में जीवन के प्रादुर्भाव से पूर्व ही प्रकृति ने उसके लिए उचित क्षेत्र निर्माण कर रखा है जिसके माध्यम से प्राणियों का अस्तित्व बना रहता है और विकास होता रहता है |वस्तुतः, ये ही ब्रह्मांड की वे शक्तियाँ हैं जिनके आधार पर सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने अन्य प्राणियों के साथ-साथ मनुष्य की रचना की | जिस तरह ये शक्तियाँ और प्राकृतिक घटनाचक्र अपने आप समर्पणभाव से सबकी सेवा में संलग्न रहता है, उसी ‘सेवा की भावना’, ‘पारस्परिक-सहयोग’ तथा ‘यज्ञ करने की क्षमता’ के द्वारा मानव को ब्रह्मा जी ने वृद्धिप्राप्ति का वरदान भी दिया | श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय के दसवें श्लोक में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी के इसी वरदान को “कामधुक्” की संज्ञा दी है अर्थात् यदि समाज में सब लोग परस्पर सहयोग, समर्पणभाव एवं अनुशासन में रहकर ,अनासक्ति तथा त्याग की भावना से कर्म करें तो समाज दारिद्र्य और दुखों से मुक्त हो सकेगा | हमारे लिए लक्ष्य-प्राप्ति भी अप्राप्य नहीं रहेगी |
स्मरणीय है कि “यज्ञ” शब्द का अर्थ हमारे वे सभी कर्म हैं जो हम अपने साथ-साथ औरों के कल्याण के लिए ,परस्पर सहयोग से अनुशासन में रहकर किया करते हैं | दूसरे, पौराणिक कथाओं के अनुसार कामधुक् अर्थात् कामधेनु ऋषियों की गाय थी जो सब इच्छाओं की पूर्ति करती थी |
मनुष्य को स्वेच्छा से कर्म करने की स्वतन्त्रता ईश्वर ने दी है लेकिन जब कभी भी वह अत्यधिक अहंकार एवं स्वार्थ से प्रेरित हो कर कर्म करता है ,तो बजाय लक्ष्य सिद्धि के दुःख झेलता है क्योंकि प्रकृति के सामंजस्य में वह विरोध उत्पन्न करता है | दूसरी ओर, जब हम किसी भी क्षेत्र में त्याग एवं समर्पण की भावना से प्रेरित हो कर, पूर्ण मनोयोग से परिश्रम करते हैं, तब उस क्षेत्र की “उत्पादन-क्षमता” हमें इच्छित फल दिया करती है | अब चाहे तो यह कर्मक्षेत्र सीमा पर घोर कष्टों को सहने वाले वीर सैनिकों का हो, चाहे किसी फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों का हो, चाहे रसोईघर में खाना पकाती माँ का हो,चाहे कपड़ों पर स्त्री करने वाले धोबी का हो,चाहे स्कूल में पढाने वाले अध्यापक का हो या फिर कहीं पर भी कोई भी कार्य-क्षेत्र क्यों न हो, बस नियम तो वही लागू हुआ करता है कि मर्यादा में रहकर, परस्पर सहयोग करते हुए, सेवाभाव से किए जाने वाले कर्म ही सिद्ध हुआ करते है |
मित्रों, अंतत:, यही कहना चाहती हूँ कि हममे से किसी को भी सामूहिक प्रयत्न में सहयोग दिये बिना दूसरों के श्रम का लाभ नहीं उठाना चाहिए क्योंकि समाज का वह व्यक्ति जो उत्पादन अथवा निर्माण में बिना कोई सहयोग दिए लाभ लेता है ,वह राष्ट्र के लिए भार स्वरूप होता है |ऐसे व्यक्ति को भगवान् श्री कृष्ण ने तो श्रीमद्भगवद्गीता जी में ‘स्तेन’ अर्थात् चोर की ही संज्ञा दे डाली है | इसलिए मित्रों, “सहयोग में प्रमाद” कहीं हमारा स्वभाव न बन जाये, इसके प्रति हमें बेहद सतर्क रहना होगा और स्मरण रखना होगा कि जिन तत्त्वों से हम बने हैं, जिनके साथ और जिनके बीच रहकर जीवन-यापन किया करते हैं तथा अंततः जिन में विलीन हो जाते हैं ,वे तत्त्व ही हमें स्वस्थ जीवन-यापन की शैलियों का मूक-परिचय दिया करते हैं , और सन्देश देते हैं कि हम स्वार्थी नहीं सहयोगी बनें।
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I am grateful to Mrs. Rajni Sadana for sharing this inspirational cum spiritual article with AKC. Thanks Rajni Ji for inspiring us with your wonderful write-ups.
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shivam patel says
bahut sahee sahee baat hai
shravan pandey says
great thought jo badal de aap ki jindagi.
is web. ne to meri jindagi me bhoot bada priwartan kiya hai andar se strong bnaya.
so thank u Mr. Gopal Mishra Sir
plz send your mo. no. plz
Naresh Kumar says
mai khud tuta hua hu.
tujko kaise joduga ?
itna pyar na de mujhe.
wapis kaise moduga ?
Maya kapoor says
Do good things with your hearts and what ever u have …..