महाभारत का युद्ध चल रहा था। भीष्मपितामह अर्जुन के बाणों से घायल हो बाणों से ही बनी हुई एक शय्या पर पड़े हुए थे। कौरव और पांडव दल के लोग प्रतिदिन उनसे मिलना जाया करते थे।
एक दिन का प्रसंग है कि पांचों भाई और द्रौपदी चारो तरफ बैठे थे और पितामह उन्हें उपदेश दे रहे थे। सभी श्रद्धापूर्वक उनके उपदेशों को सुन रहे थे कि अचानक द्रौपदी खिलखिलाकर कर हंस पड़ी। पितामह इस हरकत से बहुत आहात हो गए और उपदेश देना बंद कर दिया। पांचों पांडवों भी द्रौपदी के इस व्य्वहार से आश्चर्यचकित थे। सभी बिलकुल शांत हो गए। कुछ क्षणोपरांत पितामह बोले , ” पुत्री , तुम एक सभ्रांत कुल की बहु हो , क्या मैं तुम्हारी इस हंसी का कारण जान सकता हूँ ?”
द्रौपदी बोली-” पितामह, आज आप हमे अन्याय के विरुद्ध लड़ने का उपदेश दे रहे हैं , लेकिन जब भरी सभा में मुझे निर्वस्त्र करने की कुचेष्टा की जा रही थी तब कहाँ चला गया था आपका ये उपदेश , आखिर तब आपने भी मौन क्यों धारण कर लिया था ?
यह सुन पितामह की आँखों से आंसू आ गए। कातर स्वर में उन्होंने कहा – ” पुत्री , तुम तो जानती हो कि मैं उस समय दुर्योधन का अन्न खा रहा था। वह अन्न प्रजा को दुखी कर एकत्र किया गया था , ऐसे अन्न को भोगने से मेरे संस्कार भी क्षीण पड़ गए थे , फलतः उस समय मेरी वाणी अवरुद्ध हो गयी थी। और अब जबकि उस अन्न से बना लहू बह चुका है, मेरे स्वाभाविक संस्कार वापस आ गए हैं और स्वतः ही मेरे मुख से उपदेश निकल रहे हैं। बेटी , जो जैसा अन्न खाता है उसका मन भी वैसा ही हो जाता है “
Sakaldeo Mandal, School Teacher
Sahibganj , Jharkhand
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We are grateful to Sakaldeo Ji for sharing this inspirational incident from Mahabharata.
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Adi says
Yed true
rakesh mishra says
nice story
santosh uniyal says
ramayan me aaya hai jaisa khaoge ann vaisa hoga man
neetu says
I am agree with this story.. i learned its effect on our body, mind..
जैसा हम अन्न खाते है। वैसा हमरा मन और जीवन हि होता है।