प्रेमचंद हिंदी के प्रसिद्ध और महान कहानीकार हैं। आपका जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के पास लमही नामक गॉव में हुआ था। आपने अपनी कहानियों के माध्यम से उस समय की सामाजिक अव्यवस्था का चरित्र-चित्रण बहुत
यर्थात तरीके से किया है। प्रेमचंद जी ने शोषित-वंचित किसान की दयनीय स्थिति को अपनी कहानी सवा सेर गेहुँ में व्यक्त किया है।
सवा सेर गेहुँ शंकर नामक एक ऐसे सीधे-सादे और भोले-भाले किसान की कहानी है जिसे धोखे से ऋण के जाल में फंसा दिया जाता है। शंकर एक भोला-भाला किसान है। वह किसी तरह अपना जीवन यापन करता है। उसे दो जून का खाना भी बङी मुश्किल से मिलता है। उसकी जिंदगी खास्ता-हाल में गुजर रही थी। इसी बीच उसके जीवन में एक ऐसी घटना घटित होती है जिससे उसका जीवन नरकीय हो जाता है।
उसके दरवाजे पर एक दिन एक साधु महराज आ जाते हैं। साधु को खिलाने के लिए उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप अन्न नही होता, घर में जौ तो था पर साधु को ये मोटा अनाज कैसे खिलाए ये सोचकर किसान (शंकर) पूरे गॉव में गेहुँ का आटा माँगने जाता है। परन्तु खोजने पर भी गॉव में गेहुँ का आटा नही मिलता। तब वो विप्र जी के घर जाता है, वहाँ उसे आटा तो नही सवा सेर गेहुँ मिलता है। शंकर की पत्नी गेहुँ का आटा पीसती है और भोजन बनाती है। साधु महात्मा खा-पीकर आशीर्वाद देकर चले जाते हैं। उनका आशीर्वाद कोई काम नही आता क्योंकि यही सवा सेर गेंहू आगे चल कर शंकर के गले की फांस बन जाता है ।
किसान शंकर बहुत भोला इंसान था वो छक्का-पंजा नही जानता था। उसने सोचा कि नाप तौलकर सवा सेर गेहुँ क्या वापस करूँ विप्र जी को थोङा ज्यादा ही दे देता हूँ। इस तरह शंकर लगातार ब्राह्मण महराज यानि की विप्र जी को खलिहान देते वक्त एकाध सेर अनाज ज्यादा दे दिया करता था।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अर्न्तगत पहले मुद्रा का नही बल्कि वस्तुओं का प्रचलन था जिसे अंग्रेजी में बार्टर सिस्टम के नाम से जाना जाता है। इसके तहत किसान गॉव की अर्थव्यस्था और सामाजिक-धार्मिक कार्यों में सहयोग करने वाले वर्गों को उपज का एक हिस्सा दिया करते थे। जैसे- ब्राह्मण, लोहार, कुम्हार, जमिंदार आदि को फसल कटने पर अनाज दिया जाता था। इसे ही खलिहान कहते थे। आज भी कई गॉवों में ये प्रथा प्रचलित है।
सात साल बाद अचानक एक दिन विप्र जी ने शंकर से कहा कि, कल घर आकर अपने बीज बैंक ( उधार ) का हिसाब करले, तेरे यहाँ पाँच मन गेहुँ कब से बाकी पङा हुआ है। शंकर चौंक जाता है! जब उसे पता चलता है कि विप्र जी ने सवा सेर गेहुँ का पाँच मन बना दिया है तो वो प्रतिरोध करता है। वो कहता है कि आपने पहले क्यों नही कहा मैं तो हर बार आपको अनाज ज्यादा देता रहा। विप्र जी ने कहा उसका तो कोई हिसाब नही है और ना ही तुमने ऐसा कुछ कहा था। जब शंकर इतना अनाज देने में अपनी विवशता दिखाता है तो विप्र जी उसे नरक का भय दिखाते हैं। अशिक्षा की वजह से शंकर डर जाता है और सोचता है कि एक तो ऋण और वो भी ब्राह्मण का, बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा। डर के विप्र जी से कहता है कि तुम्हारा सारा हिसाब यहीं चुका दूँगा, ईश्वर के यहाँ क्यों दूँ? मगर महाराज ये कोई न्याय नही है। शंकर ने कहा हिसाब लगा के बता दो कितना देना है।
विप्र जी ने हिसाब लगाकर बता दिया कि, गेहुँ के दाम 60 रूपये हुए। 3 रूपये सैकङा सूद। सालभर में न देने पर साढे तीन रूपये सैकङा सूद लगेगा। इस तरह दस्तावेज लिख दिया गया। दस्तावेज की तहरीर एक रुपया भी शंकर को देना पङा। शंकर दिन-रात मेहनत करके तथा सिर्फ जिवित रहने के लिए एक समय भोजन करता और अपनी चिलम भी त्याग दिया ताकि पैसे बचाकर जल्दी से उधार चुकता कर सके। इस ध्रुव संकल्प का फल आशा से बढकर निकला। साल के अंत में 60 रूपये जमा हो गये। रूपये लेकर शंकर विप्र जी के पास गया और 60 रूपये उनके चरणों में रख दिये। विप्र जी ने कहा सूद के 15 रूपये कहाँ है। शंकर बोला अभी इतना लेकर मुझे उऋण किजीये बाकी भी दे दुंगा किन्तु विप्र जी न माने। शंकर पूरे गॉव में घूम आया पर उसे 15 रूपये किसी ने न दिये क्योंकि विप्र जी के शिकार की मदद करके कोई भी उनके कोप का भाजन नही बनना चाहता था।
कहते हैं, क्रिया के पश्चात प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। सालभर तक जी तोङ मेहनत करने के बाद भी जब वे पूरी तरह से ऋण चुका न पाया तो उसका उत्साह क्षींण हो गया। मेहनत से घृणा होने लगी और शंकर हार मान लेता है तथा समझ लेता है कि अब वो ऋण नही चुका सकता। थोङी बहुत मजदूरी करके अपना जीवन यापन करता है। अंत में वो सवासेर गेहुँ के एवज में विप्र जी का बंधुआ मजदूर बन जाता है। बंधुआ मजदूर की स्थिती में ही उसकी मृत्यु हो जाती है। उसके बाद उसका बेटा विप्र जी के यहाँ बंधुआ मजदूर बन जाता है। गेहुँ के दाने किसी देवङा शाप की भाँति ताउम्र उसके सर से नही उतरे।
ये एक सत्य घटना है। ऐसे शंकरों और ऐसे विप्रों की आज भी दुनिया में कोई कमी नहीं है । अशिक्षा से ग्रसित लोग आज भी साहुकारों और उच्च वर्ग से लिए ऋण से मुक्त नही हो पाते। शंकर के बेटे जैसे अनेक बेटे आज भी विप्र जी जैसे लोगों की निर्दयता और अन्याय के गिरफ्त में हैं। उनका उध्दार कब होगा, होगा भी या नही ये तो ईश्वर ही जाने।
ये कहानी हमें इस बात की शिक्षा देती है कि शिक्षित होना नितांत आवश्यक है, यदि शंकर शिक्षित होता तो वो विप्र जी के नरक भय से कभी न डरता तथा स्वयं अन्नपूर्णा होते हुए सवासेर गेहुँ के बदले बंधुआ मजदूर न बन पाता। ये कहानी एक और बात दर्शाती है कि, जहाँ एक साल मेहनत करके शंकर 60 रूपये बचा सकता था तो थोङी मेहनत और कर लेता तो कर्ज से उऋण हो जाता। परंतु उसकी आशा निराशा में बदल गई जिससे उसने आगे मेहनत नही की।
कहते हैं, आशा उत्साह की जननी है। आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है। अतः आशावान व्यक्ति हर बाधाओं को पार कर सकता है।
अनिता शर्मा
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————— उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद ——————-
We are grateful to Anita Ji for sharing this great Hindi story of Munshi Premchand on his birth anniversary.
prashant pagar says
आज भी लोग समाज की डर से रढी पंरपंराके अनुसार अपना जिवन व्यतित करते है
yogi saraswat says
महान साहित्य मनीषी प्रेमचंद जी के विषय में बहुत सुन्दर और सटीक जानकारी लिखी है
room address says
Legend man hindi shatiya
premendra kale says
THANK’S FOR NICE ARTICLE ABOUT MUNSHI PREMCHAND