कुछ समय पूर्व 14 जुलाई 2014 को भारतीय मूल के कृषी वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन को हैदराबाद में आयोजित एक
समारोह में ‘एंबेसडर ऑफ गुडविल पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। हैदराबाद कृषि संस्थान द्वारा आयोजित समारोह में ‘इंटरनेशनल क्राप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी एरिड ट्रॉपिक्स’ (आइसीआरआइएसएटी) के महानिदेशक श्री विलियम डी डार ने स्वामीनाथन जी को पुरस्कार देकर सम्मानित किया।
हरित क्रान्ति के जनक तथा भारत को कृषी के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने वाले एम.एस.स्वामीनाथन का जन्म 7 अगस्त 1925 में तमिलनाडु राज्य के कुंभकोणम जिले में हुआ था। उनके पिता डॉ. थे तथा परिवार मध्यम वर्गीय था। जब स्वामीनाथन मात्र 10 वर्ष के थे तभी पिता का देहान्त हो गया। इस आघात के बावजूद स्वामीनाथन ने अपनी पढाई जारी रखी। 1944 में त्रावणकोर विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. की डिग्री हासिल की। प्रारम्भ से ही उनकी रुची कृषी में थी। 1947 में कोयमंबटूर कृषी कॉलेज से कृषी में भी बी.एस.सी की डिग्री हासिल की। 1949 में स्वामीनाथन को भारतीय कृषी अनुसंधान के जेनेटिक्स तथा प्लांट रीडिंग विभाग में अशिसियोट्शिप मिल गई। उन्होने अपने बेहतरीन काम से सभी को प्रभावित किया और 1952 में उन्हे कैम्ब्रीज स्थित कृषी स्कूल में पी एच डी मिल गई उनका शोध विषय था आलू।
मेघावी एवं परिश्रमी स्वामीनाथन पढाई के साथ-साथ काम भी करते रहे। उन्होने निदरलैण्ड के विश्वविद्यालय में जेनेटिक्स विभाग के यूनेस्को फैलो के रूप में भी 1949 से 1950 के दौरान काम किया। 1952 से 1953 में उन्होने अमेरीका स्थित विस्कोसिन विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स विभाग में रिर्सच असोशीयेट के रूप में काम किया। विभिन्न जगहों पर छोटी-छोटी नौकरी करने के पश्चात स्वामीनाथन परेशान हो चुके थे। अब वे ऐसी नौकरी चाहते थे जिसको करते हुए अपना पूरा ध्यान शोध कार्य में लगा सकें।
उस समय आलू पर शोध कार्य करने वालों की आवश्यकता नही थी। अतः स्वामीनाथन ने अंर्तराष्ट्रीय संस्थान में चावल पर शोध किया। उन्होने चावल की जापानी और भारतीय किस्मों पर शोध किया। 1965 में स्वामीनाथन के भाग्य ने पलटा खाया और उन्हे कोशा स्थित संस्थान में नौकरी मिल गई। यहाँ उन्हे गेहुँ पर शोध कार्य का दायित्व सौंपा गया। साथ ही साथ चावल पर भी उनका शोध चलता रहा। यहाँ के वनस्पति विभाग में किरणों के विकिरण की सहायता से परिक्षण प्रारंभ किया और उन्होने गेहँ की अनेक किस्में विकसित की। अनेक वैज्ञानिक पहले आशंका व्यक्त कर रहे थे कि एटमी किरणों के सहारे गेहुँ पर शोध कार्य नही हो सकता पर स्वामीनाथन ने उन्हे गलत साबित कर दिया।
1970 में सरदार पटेल विश्वविद्यालय ने उन्हे डी एस सी की उपाधी प्रदान की। 1969 में डॉ. स्वामीनाथन इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी के सचीव बनाये गये। वे इसके फैलो मेंम्बर भी बने। इससे पूर्व 1963 में हेग में हुई अंर्तराष्ट्रीय कॉनफ्रेंस के उपाध्यक्ष भी बनाये गये। 1954 से 1972 तक डॉ स्वामीनाथन ने कटक तथा पूसा स्थित प्रतिष्ठित कृषी संस्थानो में अद्वितिय काम किया। इस दौरान उन्होने शोध कार्य तथा शिक्षण भी किया। साथ ही साथ प्रशासनिक दायित्व को भी बखूबी निभाया। अपने कार्यों से उन्होने सभी को प्रभावित किया और भारत सरकार ने 1972 में भारतीय कृषी अनुसंधान परिषद का महानिदेशक नियुक्त किया। साथ में उन्हे भारत सरकार में सचिव भी नियुक्त किया गया।
उन दिनो कृषी प्रधान देश होते हुए भी हमारा देश कृषी के क्षेत्र में इतना विकसित नही था। लोगों को मुख्तः चावल और गेहुँ की आवश्यकता थी। हमारे वैज्ञानिक गेहुँ की पैदावार बढाने में असफल रहे। 1962 में सर्वप्रथम राव फ्लेयर फाउंडेशन से पूसा कृषी संस्थान से गेहुँ की बौनी किस्म मगाई गई साथ ही डॉ.एन आई वोरलॉंग जिनको गेहुँ की बौनी किस्म को विकसित करने के लिये 1968 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनका भी मार्गदर्शन लिया गया। डॉ. वोरलॉग भारत आये और उन्होने अपने ज्ञान से स्वामीनाथन तथा उनके साथियों को शिक्षित किया। स्वामीनाथन वोरलॉग के ज्ञान और अपने विवेक तथा कठोर परिश्रम से गेहुँ की पैदावार में काफी सफल प्रयोग करके उसकी पैदावार को बढाने में सफल रहे।
स्वामीनाथन की कामयाबी की सूचना पाकर 1971 में वोरलॉग पुनः भारत आये और उनकी प्रगती देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुए। 1965 से 1971 तक डॉ. स्वामीनाथन पूसा संस्थान के निदेशक थे। इस दौरान गेहँ के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य हुए। उन्होने इस विषय पर बहुमुल्य लेख भी लिखे। जिससे उनकी तथा संस्थान की ख्याती पूरे विश्व में प्रसंशा की पात्र बनी। बौने किस्म के गेहुँ के बीज उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और दिल्ली के किसानों को वितरित किये गये। जिससे भारत में गेहुँ की अच्छी पैदावार हुई। 1967 से 1968 में इस बात पर जोर दिया गया कि योजना का दायरा सिर्फ एक ही फसल तक न रखा जाये। वरन एक ही खेत में एक के बाद दुसरी अर्थात एक साथ एक साल में अधिक से अधिक फसले उगाकर पैदावार और बढाई जाये। इसके लिये एक ओर अधिक उपज देने वाले बीजों का प्रयोग बढाया गया तो वहीं दूसरी ओर खेती करने के लिये नये-नये तरिकों का प्रयोग और सिंचाई की भी अच्छी व्यवस्था की गई।
दोगला बाजरा, दोगली मकई, ज्वार, चावल, गेहुँ की नई नस्लों का विकास स्वामीनाथन द्वारा किया गया। गर्मी के लिये मूंग, लोब्या की फसलें तैयारी की गईं। स्वामीनाथन के नेतृत्व में दिल्ली में कई गाँव विकसित किये गये, जहाँ किसान सिर्फ बीज की पैदावार करते थे। इन किसानों को विशेष प्रशिक्षण दिया गया। डॉ. स्वामीनाथन ने हर प्रकार के अनाजों पर शोध को बढावा दिया। उन्होने अलसी की नई किस्म अरुणा को जन्म दिया। ये किस्म चार मास में पक कर तैयार हो जाती है। आन्ध्रप्रदेश के तेलांगना क्षेत्र में अलसी की एक ही फसल उगाई जाती थी अब दो फसले उगाई जाती है। उन्होने ज्वार की दोगीली फसल तथा कपास की सुजाता किस्म का विकास किया। उनके नेतृत्व में जौ की नई किस्म का विकास हुआ जिससे शरबत बनता है। इसके अलावा उन्होने पटसन की दो किस्में विकसित करने में भी अपना योगदान दिया।
स्वामीनाथन फसलों के विकास हेतु अक्सर गाँव-गाँव जाते तथा किसानो से भी चर्चा करते। कुछ चुने हुए क्षेत्रों के किसानो को बीज, खाद तथा पानी की सुविधा प्रदान की गई। अन्य वैज्ञानिक भी बीच-बीच में किसानो की समस्याओ के समाधान हेतु गाँव-गाँव जाते थे। किसानो में नई उमंग का प्रसार हुआ। स्वामीनाथन के प्रयास का असर दिखने लगा था। रेडीयो और अखबार के जरिये भी किसानो को नये आविष्कारों की जानकारी दी गई। वहीं दूसरी ओर स्कूली बच्चों को भी फसलों की नई किस्मों तथा आधुनिक कृषी से अवगत कराया गया जिससे आने वाले समय में प्रगती की रफ्तार और अधिक बढे। उन्होने इंडियन नेशनल साइंस एकेडेमी का चंडीगढ में अधिवेशन करके तथा अन्य तरीकों से भारत की प्रगति को भारत के बाहर भी प्रचारित करने का सफल प्रयास करते रहे। साइंस एकेडमी ने डॉ. स्वामीनाथन को सिलवर जुबली अवार्ड से सम्मानित किया। इस अवसर पर देश विदेश के 15 हजार वैज्ञानिकों और विद्वानों ने भाग लिया था। इस समारोह का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गाँधी ने किया था। डॉ. स्वामीनाथन के नेतृत्व में कृषी के क्षेत्र में क्रान्तिकारी अनुसंधान से भारत देश अनाज के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना। इस क्रान्ती को हरित क्रान्ती की संज्ञा दी गई। इंदिरा गाँधी ने इस पर एक डाक टिकट भी जारि किया।
डॉ. स्वामीनाथन को अप्रैल 1979 में योजना आयोग का सदस्य बनाया गया। उनकी सलाह पर आयोग के द्वारा प्रगती पूर्ण कार्य हुए। 1982 तक वे योजना आयोग में रहे। उनके कार्यों को हर जगह सराहा गया। अपने कार्यो की सफलता से डॉ. स्वामीनाथन को अंर्तराष्ट्रीय ख्याती भी प्राप्त हुई। 1983 में वे अंर्तराष्ट्रीय संस्थान मनिला के महानिदेशक बनाये गये और उन्होने 1988 तक यहाँ कार्य किया। इस दौरान उन्होने चावल पर अभूतपूर्व शोध किया तथा उन्नत किस्म का चावल विकसित करने में सफल रहे।
डॉ. स्वामीनाथन मेहनतकश वैज्ञानिक हैं। सुबह पाँच बजे उठकर देर रात तक काम करना उनकी दिनचर्या में शामिल है। वे कुशल शिक्षक, विद्वान और अनुभवी प्रशासक हैं। काम के प्रति ढृणसंक्लप उनके हर क्षेत्र में दिखाई देता है। संगीत प्रिय स्वामीनाथन पर दक्षिण के संगित्यज्ञ त्याराज का गहरा असर दिखता है। उनके गीतों से उन्हे जिंदगी की प्रेरणा मिलती है तथा उन्होने त्यागराज के गीतों को विज्ञान से भी जोङकर अपने कामों में विशेष प्रयोग किया। उन्होने कभी भी शार्टकट का सहारा नही लिया। कम ही लोगों को पता होगा कि, स्वामीनाथन यूपीएससी की परीक्षा में भी बैठे और आईपीएस के लिए क्वालफाई भी हुए लेकिन जेनेटिक्स में ध्यान होने की वजह से उन्होंने कृषि क्षेत्र में काम करने का निर्णय लिया।
डॉ. स्वामीनाथन को लिखने का भी शौक बचपन से था। बहुत कम आयु में उन्होने रूरल इंडिया पत्रिका में लेख लिखा था जो अनवरत चलता रहा। उनके अनगिनत लेख भारतीय और विदेशी पत्र पत्रीकाओं में छप चुके हैं। भरतीय कृषी के लगभग हर पहलु को उन्होने उजागर किया। 1971 में वे UGC के राष्ट्रीय प्रवक्ता नियुक्त हुए और समय समय पर अंर्राष्ट्रीय समारोह में भाषण देते रहे। वे कुशल वक्ता भी हैं। स्वामीनाथन ने अपने वैज्ञानिक कृत्तव से बहुत सम्मान पाया। 1969 में आपको डॉ. शांतीस्वरूप पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा बीरबल साहनी पुरस्कार तथा 1971 में पद्मश्री पुरस्कार से अलंकृत किया गया। समाज के खाद्यान समस्या के निवारण हेतु आपको अंर्तराष्ट्रीय स्तर का रमन मेग्सेस पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।
1972 में पद्मभूषण से सम्मानित किये गये तथा 1989 में पद्मविभूषण से अलंक़त किये गये। डॉ. स्वामीनाथन ने अनेक देशों में कृषी के मंच पर भारत का प्रतीनिधित्व ही नही किया बल्की भारत की प्रतिष्ठा और गौरव को भी बढाया। स्वामीनाथन अंर्तराष्ट्रीय कृषी के तकनिकी सलाहाकार थे। संयुक्त राष्ट्र द्वारा बनाई गई प्रोटीन कैलोरी दल के में भी वे सलाकार के रूप में रहे। डॉ. स्वामीनाथन जैसे महान कर्मठ एवं दृणसंकल्पवान वैज्ञानिकों के योगदान से आज हमारा देश खाद्य विभाग में आत्मनिर्भरता की ओर दिन-प्रति दिन बढ रहा है। डॉ. एम.एस.स्वामीनाथन के प्रयास और योगदादान का सभी भारतीय सम्मान करते हैं। भविष्य में भी डॉ. स्वामीनाथन द्वारा किये गये नये अनुसंधानो से भारत का विकास हो यही कामना करते हैं।
जय भारत
अनिता शर्मा
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We are grateful to Anita Ji for sharing this Hindi Article on life of the father of green revolution Dr. M S Swaminathan.
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Anonymous says
Really dr ms swaminathan should be given a tribute because of whom green revolution started
manshir pradhan says
is sai ko banene walo ko salam hain bai aap sabho ko jo isme sear karte ho namste sir
big proud in india
nilesh says
Resptected swaminathan ki wazah se bharat nirbhar ho gaya. bahut malumat ho gai meri rai a hai ki
aajkal chemical fertilizer ka upyog bahot ho raha hai jiski wazah se jamin banzar ho rahi hai aur health
dangerous ho gaya hai uske bare me bade abhiyan sure karne chahiye alertness hona zaruri hai
Amul Sharma says
वाह !!! आज ही मेने अपने विद्यार्थियों को हरित क्रांति और इसके जनक डॉ एम.एस.स्वामीनाथन के बारे में पढाया और सोचा के इनके बारे में इन्टरनेट पर कुछ अलग और डिटेल में पढ़कर कल बच्चो को बताऊंगा , और आज ही आपने ईमेल के माध्यम से मुझे इस पोस्ट के बारे में सूचित कर दिया , वाह रे वाह law of attractionजिसकी वजह से इतनी अच्छी पोस्ट मुझे पढने को मिल गयी / डॉ एम.एस.स्वामीनाथन की वजह से ही हम आज foodgrains में हम आत्मनिर्भर बन पाए हैं ,हरित क्रांति से पहले हमारा देश में अनाज import किया जाता था लेकिन हरित क्रांति कि वजह से आज हमारा देश अनाज में आत्मनिर्भर भी बन गया और हम दूसरे देशों के लिए अनाज export भी करते हैं/धन्यवाद गोपाल सर और अनिता जी………………
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