जैसे ही कक्षा में प्रवेश किया दो बच्चों को हाथापाई करते पाया, मुझे देखते ही वो बैठ तो गए पर हल्की सी आवाज़ मेरे कानों में पड़ी-
चल तू बाहर निकलना, तुझे तब देखूँगा।
जिस प्रकार आग को आग से नहीँ बुझाया जा सकता, उसी प्रकार मेरी एक व्यक्तिगत सोच है कि मात्र अनुशासन बनाने के नाम पर मैं अपने अहंकार की तुष्टि नहीं कर सकती थी। उस परिस्थिति से निपटने के दो मार्ग थे।
- पहला तो अत्यंत सरल था। किसी की इतनी हिम्मत कि मेरे सामने बोल जाए- मेरे अहंकार को चोट लगाने वाले छात्र को थप्पड़ या छड़ी से सजा मिलनी ही चाहिए।
- और, दूसरा मार्ग यह था कि शान्ति बनाये रखते हुए उन्ही छात्रों के मुख से यह कहलवाया जाए कि विद्यालय में ऐसा वातावरण बनाना उचित नहीं। अतः धैर्य रखते हुए मैंने दूसरा मार्ग चुना।
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क्रोध परिस्थितिजन्य तो होता ही है पर इसके अंकुर सुप्त अवस्था में हमारे भीतर ही विद्यमान रहते हैं। क्रोध वस्तुतः असुरक्षा की भावना का प्रकटीकरण है। विद्यालयी जीवन से पूर्व बालक कैसे पारिवारिक वातावरण में रहा? यह जानना और समझना आवश्यक है।
माता-पिता आपसी तनाव के कारण, आर्थिक, पारिवारिक या सामजिक बाध्यताओं के चलते बच्चों को अपनत्त्व नही दे पाते, जिस स्तरीय समय के वो अधिकारी होते हैं, वो उन्हें नही मिल पाता। इतना ही नही कामकाजी माता -पिता तो अपना तनाव भी बच्चों पर ही निकाल देते हैं, इसके अतिरिक्त अधूरी महत्त्वाकांक्षाओं का बोझ भी मासूम बच्चों पर डाल दिया जाता है।
समय कम पर आशाएं अधिक, कम समय में ही बच्चे को सुपर हीरो बनाने का जो जूनून होता है, उसका परिणाम होता है –
बेटा यह मत करो, बेटा वो मत करो
अर्थात् नकारात्मक नियंत्रण। मासूम बच्चा कारण नहीँ जान पाता कि यह कार्य क्यों न किया जाए, आदेश पूर्ति का साधन बन जाता है महज़ एक रोबोट की भाँति उसका जीवन चलायमान होने लगता है। पर परिणाम यह होता है कि विरोध के अंकुर उसके हृदय में पनपने लगते हैं और अवसर पाते ही वो बच्चा नियंत्रण और अनुशासन की सारी लकीरों को तोड़ देता है।
क्रोधित बच्चा सज़ा का नहीँ संवेदना और सहानुभूति का हकदार होता है, पर उसे डांट कर या उसकी निंदा करके प्रायः अपने कर्तव्य की इतिश्री कर दी जाती है। और परिणाम बच्चे को आत्म हीनता के बोझ तले डुबो दिया जाता है।अगर छात्र क्रोधी स्वभाव का है तो और अधिक हिंसक हो कर उभरता है।
एक बार मैंने एक बुज़ुर्ग को मार्केट में एक बच्चे से उलझते देखा, शायद अनजाने में उस किशोर का धक्का उन्हें लग गया था। बाबा जी चिल्ला रहे थे, “संस्कार नहीं हैं, माँ-बाप ने कुछ नही सिखाया, जान-बूझकर धक्का दिया।”
उस किशोर ने इतनी बातें सुन उल्टा बोलना शुरू कर दिया। मैं वहा पहुंची तो मैंने किशोर के काँधे पर हाथ रख कर एक ही बात कही, “बाबा जी मैंने देखा था, अनजाने में हुआ सब, बेटा तुम इतने समझदार हो, वो बड़े हैं कोई नही, सॉरी बोल दो और चलो आओ”
वो बच्चा जिसे अब तक सब अपराधी समझ रहे थे, उसके चेहरे पर सुकून का भाव आया और वो एकदम से बोला, “देखा अंकल जी, मैंने कहा था न, अच्छा सॉरी.” ऐसा कहकर वो चला गया।
उसके काँधे पर हाथ रख कर मैंने उसे एक सुरक्षा और मुख्यतः स्वीकार्यता का एहसास कराया था। यहां पर उन अंकल जी को अपनी उम्र का अभिमान था, जिसके चलते वो उस बच्चे को क्षमा नही कर पा रहे थे।
शब्दों के चयन में सावधानी बरतनी आवश्यक है। ‘तुम नालायक हो, तुम्ही बुरे हो, तुमसे नही होगा’- ऐसे शब्दों से वो अंकल यह अपेक्षा कर रहे थे कि वो किशोर उनसे माफ़ी मांगेगा। विचित्र स्थिति है -वस्तुतः बच्चे ही नही बुज़ुर्गजन भी अस्वीकार्यता के हालात से गुज़र रहे हैं।
माँ बाप के पास इतना समय नही कि बच्चों की संवेदनात्मक आवश्यकताओं को स्वीकार सकें और बच्चों के पास इतना अवकाश नहीँ कि वो अपने बुज़ुर्ग होते माता-पिता की संवेदनात्मक आवश्यकताओं को स्वीकार कर सकें। विडम्बना यह है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति इतनी निराशा और आपाधापी के दौर से गुज़र रहा है कि मानसिक स्वास्थ्य सभी का विचारणीय है।
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दफ्तर में, पार्क में, संसद में, सड़क पर-हर जगह आपको आपस में उलझते लोग दिखाई दे जाते होंगे। उन झगड़ते बच्चों से मैंने इतना ही कहा-
“मुझे नही पता तुम क्यों उलझे, शायद तुम दोनों ही सही हो, या तुम दोनों ही गलत हो…पर मुझे एक बात जो अच्छी नही लगी, वो थी तुम्हारे विरोध करने का तरीका और तुम्हारी भाषा -शैली। कभी-कभी विचारों में मतभेद हो जाता है जो कि होना भी चाहिए उसी से हमारी सोच को एक सकारात्मक दिशा मिलती है।
पर मेरे विद्यार्थी इतने कमज़ोर नहीं होने चाहिए कि वो अपना विरोध हाथ उठाकर प्रकट करें, आत्म-सम्मान बनाये रखने के लिए विरोध दर्ज़ कराना अत्यंत आवश्यक है पर क्रोध प्रकट करने का हमारा तरीका हमारे संस्कार, हमारे परिवार और हमारे गुरुजनों का परिचय दे जाता है। और शायद तुम्हें मैंने विचार प्रकट करना तो सिखाया ही है।”
विश्वास कीजिये कि दोनों ही बच्चों ने मुझसे ही नहीं एक दूसरे से भी माफ़ी मांगी।
नीरू ‘शिवम’
लेखिका
हिंदी प्रवक्ता
हम नीरू ‘शिवम’ जी के आभारी हैं कि उन्होंने क्रोधित या गुस्साए हुए बच्चों से किस तरह व्यवहार किया जाए विषय पर हमारे साथ इतना अच्छा लेख share किया।
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jyoti says
Thanks for share it……
pardeep singh says
we have just first time come in your blog and we really inspire lot of ..
Thanks for the sharing these beautiful information
Regard’s
Pardeep singh
Anshul Gupta says
क्रोध को क्रोध से नहीं जीता जा सकता है क्रोध को यदि जीतना है तो प्रेम को अपनाना होगा. पतंजलि ने अपने योगसूत्र में कहा है – किसी भी नकारात्मक विचार को उसके विपरीत विचार द्वारा ही जीता जा सकता है
kumar says
parenting guide behtrin lekh. thanks for sharing hope naya sikhne ko mile logo ko
Anil Sahu says
नीरू जी का आलेख पसंद आया. इसी प्रकार के विषयों पर आप मेरी साईट एजुकेशन टुडे पर भी कुछ लेख पढ़ सकते हैं.
http://www.edutoday.in/
Yash Yadav says
bacho ko agar pyar se samjaya jaye to har bacha samaj sakta hai but raste me kuch age me bde log bacho ko aise treat karte hai ki apke maa baap ne kuch nhi sikhaya jabki ye bhi ho skta hai ki jo ye baat bol rha ho uske bache hi uski bataon ko na mante ho kyuki jo apne bacho ye pyar se treat hai na vo log bahar bhi pyar se treat karte hai or yuva bacho ko hamesha pyar ki language hi samj aati hai agar aap unse aache se baat nhi karoge to syd vo bhi na kar paye.