न जाने वो कौन से दिन थे जब इस धरती पर डायनासोर नाम का कोई जानवर पाया जाता था। आज तो दूर-दूर तक उसके नामोनिशान भी नहीं मिलते। यही बात सोच-सोच कर न जाने क्यों डर सा लगने लगता है ? कहीं एक दिन मेरा गाँव भी डायनासोर ना बन जाए…मुझसे दूर ना चला जाए।
सब कहा करते थे अपना देश तो गाँवों का देश है। यहाँ तो सदियों से गाँव में ही लोग रहते आए हैं। पर न जाने क्यों लोग गाँव से पलायन कर रहे हैं। ऐसा कौन सा संकट आन पड़ा कि अचानक सब शहर की ओर कूच कर रहे हैं। आखिर कोई तो होगा जो गांवों को खाली करने में तुला है। अब तो गाँव में सूना-सूना सा लगता है।
आज तो बच्चा पढ़ने लायक हुआ नहीं कि उसे शहर भेज दिया जाता है। यह सब देख कर दिल दुखी हो जाता है, हताशा भी होती है। क्योंकि याद आ जाती है वो गाँव की दिल छूने वाली यादें-
जब छोटे छोटे बच्चे बरगद व आम के पेड़ के नींचे खूब मस्ती करते और जब थक जाते तो उसी पेड़ की छाया तले घण्टों सो जाते थे। फिर पेड़ की लकड़ियों को तोड़कर गिल्ली -डंडा भी खेला जाता था।
पता नहीं आज कल यह सब ग़ायब ही हो गए हैं। शहरों की बढ़ती चकाचौंध ने गांव की चीजों को छीन लिया। गाँवों का शहरीकरण किया जा रहा है। जैसे आज डायनासोर ढूंढें नहीं मिलता है वैसे ही कल गाँव भी ढूंढें नहीं मिलेंगे!
आज गाँव में बच्चों की धमा-चौकड़ी गायब होती जा रही है…. वे अब आपस में लड़ते भी नहीं और ना ही ये कहते हैं कि – “अगर तू मुझे मरेगा तो मैं अपने बाबू को बुला लाऊंगा” ।
बरगद के पेड़ों की डालियाँ भी सूनी हो गयी हैं अब उन पर कोई झूला नहीं झूलता है। सच में कितना आनंद आता था पेड़ पर झूला झूलने में। उधर आम के पेड़ में भी उदासी दिख रही है। ऐसा लगता है कि अब कब इसके नींचे बड़े बुजुर्गों की चौपाल लगेगी? हम कितना खुश हो जाते थे कि आज की चौपाल में क्या होगा ? वास्तव में अटूट मुस्कुराहट आती थी उस माहौल में।
अब गाँव की पाठशाला में “दो एक्कम दो ….दो दुनी चार की” आवाज़ भी नहीं गूंजती… वरना डर लगता था कि कहीं से गुरु जी न आ जाए और पहाड़ा ना पूछ लें… और वो आधी छुट्टी का इन्तज़ार ‘लंगड़ी’ खेलने के लिए बहुत याद आता है। कभी-कभी तो दिल कहता है कि काश वो दिन वापस आ जाए मगर ….
गांव में खेतों की हरियाली देखकर दिल बाग-बाग हो जाता था। कितना मजा आता था जब दोस्तों के कहने पर रामू काका के खेत से चने उखाड़ा करते थे और फिर घर में शिकायत पहुँचती व डाँट भी सुननी पड़ती थी।
अब कच्चे घर को ढूढ़ते फिरते हैं पर वो तो डायनासोर की भाँति गायब से हो गए। वैसे तो उन कच्चे घरों की दीवारें कच्ची थीं परन्तु उनमें रहने वाले लोग बड़े पक्के होते थे। वो लोग एक दूसरे के प्रत्येक दुख-सुख में शामिल होते थे। लोगों में छोटे बड़ों का लिहाज किया जाता था। यह सब याद करके गांव की याद आँखों से हटती ही नहीं है। शहरीकरण बिजली की गति से हो रहा है। लेकिन ऊपर वाले से दुआ करूँगा कि मेरे गाँव को डायनासोर न बनाओ!

We are grateful to Shivendra Ji for sharing a heart touching article reminding us of our Villages. Thanks!
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bhut shi line h lots__of__love
मस्त है भाई ये आर्टिकल मुझे बेहद पसंद आयी कसम से माज़ आ गया
Bahut he achhi post likhi apne
अच्छी कहानी सर जी दिल को छु गयी
गाँव में छोड़ आये, जो, हज़ार गज़
की बुजुर्गों कि हवेली….!!
वो शहर में सौ गज़ में रहने को खुद
की तरक्की कहते हैं….!!!
Sach me very heart touching words
Vakt ke sath sab kuchh badalta hai, yahi jeevan hai
Shi me wo din badi khushkismat thi ab bas yaaden hai….
ये सच है कि गाँव बदल रहे है… पर ये प्रकृति का ही नियम है… और बदलाव अगर लोगों के जीवन को बेहतर बना रहा हो तो उसे होने में हर्ज़ ही क्या है?
sachmuch ganv ab waise nahi rahe…. naa hi ab gaanv vaale hii waise rahe…