साड़ियों का सम्पूर्ण इतिहास : प्रारंभ से अब तक
History of Sarees in Hindi
सोलहवीं शब्ताब्दी में ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ एक ड्रेस पहनती थीं… जिसका नाम था …..ड्रम फ़ार्थिंगेल.
आज ये ड्रेस कहाँ विलुप्त हो गई कोई नहीं जानता. उसी काल के महान नाटककार विलियम शेक्सपीयर की पोर्ट्रेट देखें तो वे अपने गले में ‘रफ’ पहने हुए नज़र आते हैं… आज इस ‘रफ’ का भी कोई अता-पता नहीं.
खैर ये तो बहुत पुरानी बात हो गई…. थोड़ा अपने समय में आते हैं….
70 के दशक में अमिताभ बच्चन जिस bell-bottom को पहन कर “खई के पान बनारस वाला” पे ठुमके लगा रहे हैं उसका भी आज कोई पता नहीं है…
और ना ही साल 2000 के आस-पास लड़कियों के बीच पॉपुलर हुई Lace-Up Jeans ही कहीं दिखाई दे रही है.
ये सब फैशन ट्रेंड्स न जाने कब के काल के गाल में समा गए …लेकिन एक ऐसा परिधान है जो इन सबसे कहीं पुराना है पर आज भी भारतीय नारी की पहचान बना हुआ है और हर बीतते दिन के साथ अपनी उपस्थिति को और भी मजबूत बनाता जा रहा है… आप समझ ही गए होंगे दोस्तों … वो परिधान है साड़ी. (History of Sarees In Hindi)
नमस्कार, मैं हूँ Ajmera Fashion का फाउंडर & सीईओ अजय अजमेरा. आज मैं आपसे बात करूँगा साड़ियों के समृद्ध इतिहास की.
इस पोस्ट में मैं आपको भारत के अलग-अलग हिस्सों में बनने वाली साड़ियों और उनसे जुड़ी कुछ बेहद दिलचस्प बाते बताऊंगा जिन्हें जान कर आप भी हैरान हो जायेंगे. इसलिए पोस्ट को अंत तक ज़रूर पढियेगा.
दोस्तों, क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मनुष्यों ने कपड़ा बनाना और पहनना कब से शुरू किया होगा ? और जो सुई आज घर-घर में पाई जाती है उसका आविष्कार कब हुआ होगा ? आइये इसका सम्पूर्ण इतिहास जानें |
प्राचीन काल से कपड़े पहनता आया है मनुष्य
शायद आपको यकीन नहीं होगा… कई अध्यनों से अनुमान लगाया गया है कि मनुष्य 1 लाख साल से भी पहले से कपड़े पहन रहा है और कपड़ा सिलने वाली सुई का आविष्कार 50,000 साल पहले हो चुका था. 2016 में साउथ अफ्रीका की एक गुफा के अन्दर से bird bone से बनी एक “सुई” की खोज हुई थी जिसे देखकर आज के archaeologist भी हैरत में पड़ गये थे.
दोस्तों, “साड़ी” शब्द की उतपत्ति संस्कृत के ‘शाटिका’ शब्द से हुई है. समय के साथ ‘शाटिका’ से ‘शाटी’ शब्द बना जो बाद में बदलकर ‘साडी’ और फिर ‘साड़ी’ में तब्दील हो गया.
जहां तक बात साड़ियों के आविष्कार की है तो इसकी exact date बताना मुश्किल है लेकिन इतना ज़रूर है कि रामायण-महाभारत के काल से भारतीय नारी साड़ियाँ पहनती आ रही हैं.
वाल्मीकि रामायण में लिखा हुआ है…
स तं पद्म पलाश अकसिं पीत कौषेय वासिनीं |
अभ्यगच्छतः वैदेहिं दृष्ट चेता निषा कारः
जब रावण ने वैदेही अर्थात माँ सीता का हरण किया तब उन्होंने कौषेय यानी रेशम की साड़ी पहनी हुई थी. इसी तरह जब द्रौपदी का चीरहरण हुआ था तब उन्होंने भी साड़ी ही पहनी हुई थी और तब स्वयं वासुदेव श्री कृष्ण ने साड़ी की लम्बाई बढ़ा कर उनकी अस्मिता बचाई थी.
Complete History of Sarees in Hindi : From Beginning Till Now
दोस्तों, ‘साड़ी’ दुनिया का सबसे प्राचीन परिधान है जो सदियों पुरानी पौराणिक कथाओं से लेकर आज-कल के फैशन शोज तक में में अपनी जगह बना रहा है.
ऐसे प्रमाण मिले हैं जो बताते हैं कि सिन्धु घाटी सभ्यता में बड़े स्तर पर कपास यानी कॉटन की खेती होती थी. इंडिगो, लाख और हल्दी जैसी चीजों से कॉटन फाइबर को डाई किया जाता था और उनसे साड़ियाँ बनाई जाती थीं. इसका ये मतलब हुआ कि जो कॉटन साड़ियाँ आज इतनी पॉपुलर हैं वो 4 हज़ार साल पहले से महिलाओं द्वारा पसंद की जा रही हैं.
मौर्या साम्राज्य में साड़ी परिधान का चलन
इससे और आगे बढें तो हम ईसा से 200 साल पूर्व के उस काल में पहुँच जाते हैं जब भारत में मुख्यतः मौर्य साम्राज्य काबिज था …. यह समय था चन्द्रगुप्त मौर्य का, चाणक्य का….और सम्राट अशोक का. उस काल में बने सांची स्तूप पर भी ऐसी carvings हैं जो दिखाती हैं कि उस समय भी साड़ी जैसा वस्त्र प्रचलित था.
ये वो समय था जब साड़ियाँ कुछ-कुछ बदलने लगीं. सिल्क, कॉटन के साथ साथ लिनन और मुस्लिन फैब्रिक भी प्रयोग होने लगा. उस समय स्वर्ण के आभूषण और कीमती पत्थरों का चलन बढ़ चुका था. संभव है उसी काल में पहली बार साड़ियों पर कीमती स्टोंस को स्टिच किया जाना शुरू हुआ हो और पहली बार साड़ियों पर एम्ब्रायडरी की गई हो.
पैठणी साड़ी
दोस्तों, आपने पैठणी साड़ियों का नाम ज़रूर सुना होगा…. इन साड़ियों को बनवाने का श्रेय मराठवाड़ा के प्रसिद्ध सातवाहन शासक शालिवाहन को जाता है जो 2000 साल पहले भारत के कुछ हिस्सों पर राज करते थे. पैठणी साड़ी को बनाने में चीन के बेहतरीन रेशम के धागों और शुद्ध ज़री का उपयोग होता था.
इसके बाद गुप्ता वंश से लेकर मेडिवल पीरियड तक यानी मुघलों के आने से पहले तक साड़ी बनाने और पहनने के ढंग में कई बदलाव आये. कपड़ों की बुनाई करने के नए तरीके इजात किये गए. नए-नए रंगों का इस्तेमाल होने लगा. रीजनल आर्ट कढ़ाई के रूप में साड़ियों पर उकेरी जाने लगी, कीमती पत्थर जड़े जाने लगे.
जिन बंधनी या बंधेज साड़ियों को आज भी शौक से पहना जाता है उनका आविष्कार सातवी शताब्दी में राजा हर्षवर्धन के काल में गुजरात में हुआ था. इन साड़ियों को बनाने के लिए कपड़े को एक विशेष पैटर्न में बाँध कर डाई किया जाता था. दूर देश से आने वाले व्यापारी इस कला को भारत लेकर आये थे.
माना जाता है कि इसी काल में चरखे का इन्वेंशन हुआ था. दरअसल, ‘चर्ख’ एक पर्शियन शब्द है, जिससे चरखा शब्द बना है. संभव है चरखा पर्शिया यानी present day Iran में इन्वेंट किया गया हो. गाँधी जी द्वारा world-popular किया जाने वाला ये उपकरण आज भी सूत कातने के लिए प्रयोग किया जाता है.
मुग़लिया काल में सिलाई और बुनाई का दौर / बनारसी साड़ियों का इतिहास
खैर, अब तक साड़ियाँ पूरे भारत में छा चुकी थीं लेकिन अभी उनका स्वर्णिम युग आना बाकी था. और वो आया मुघलों के आगमन के साथ. सन 1526 में जब मुगल भारत में आये तो वे अपने साथ कपड़े बुनने और सिलने के नए तौर तरीके भी ले आये. यही वो समय था जब ज़री का काम प्रसिद्द होने लगा. धीरे-धीरे साड़ियाँ व्यावहारिक पोशाक से कला के उत्कृष्ट नमूनों में बदल गईं, जो वास्तव में फ़ारसी और भारतीय सांस्कृतिक के फ्यूजन को दर्शाती हैं.
अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ जैसे मुग़ल सम्राट उत्कृष्ट शिल्प कौशल को काफी बढ़ावा देते थे. कहते हैं कि औरंगजेब जैसा क्रूर मुग़ल शाशक भी पैठणी साड़ियों का दीवाना था और उसने पैठणी बुनकरों से एक नई विधा औरंगजेबी भी शुरू करवाई थी. इन सम्राटों को खुश करने के लिए कारीगरों ने साड़ियों को लेकर भी खूब प्रयोग किये और एक से एक कीमती फैब्रिक, कढ़ाई और बुनाई करने के तरीके इजात करने लगे.
बादशाहों के दरबार खूबसूरत डिज़ाइन वाली साड़ियों के development centers की तरह बन गए, शाही आलमारियों को बेशकीमती कपड़ों से सजाने के लिए होड़ सी लग गई. ज़रदोज़ी और कामदानी Embroidery की कला मुगलों द्वारा ही introduce की गई…. और इस तरह के काम का एक बहुत बड़ा केंद्र सूरत बना. इसके पीछे कारण ये था कि उस समय सूरत मुंबई से भी बड़ा व्यापारिक केंद्र था इसके अलावा मक्का -मदीना की हज यात्रा के लिए यहीं से जहाज आया-जाया करते थे.
हिन्दू राजाओं और रियासतों ने भी कपड़ों को लेकर हो रहे इस बदलाव को अपनाया और बढ़ावा दिया. विभिन्न क्षेत्रों में हथकरघा बुनाई की अपनी शैलियाँ विकसित होने लगीं जिन्होंने दुनिया भर में भारतीय टेक्सटाइल को पॉपुलर बनाया.
इसी दौर में साड़ियों पर सोने और चांदी के तारों से बुनाई की जाने लगी. धागों को हाथ से बुनकर ऐसे-ऐसे पैटर्न बनाए जाने लगे जिनको बनाने के बारे में अब सोचना भी मुश्किल है. यही वो समय है जब सोने और चांदी के धागों का उपयोग करके जटिल डिजाइनों के साथ ब्रोकेड की बुनाई बनारस की विशेषता बन गई और इस तरह बनी साड़ियाँ ‘बनारसी साड़ी’ के नाम से विश्व-विख्यात हो गईं.
राजा कृष्णदेव राय के राज में कांजीवरम साड़ियों का उत्पादन
वहीं अगर कांजीवरम साड़ियों की बात करें तो इनका इतिहास और भी रोचक है. माना जाता है कि देवताओं के बुनकर ऋषि मार्कंड के वंशज कांचीपुरम में आकर बसे. 400 साल पहले उन्ही ने विजयनगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेव राय के काल में कांजीवरम साड़ियों का निर्माण किया जो आज भारत की सबसे महंगी साड़ियों में एक हैं.
मुगलों के पतन के बाद सत्रहवीं शताब्दी में अंग्रेज ईस्ट इंडिया कम्पनी की आड़ में भारत पर कब्ज़ा करने लगे. वे अपने साथ भारत में एक नया कल्चर भी ले आये. Victorian fashion से प्रभावित हो कर साड़ियों के साथ साड़ी-ब्लाउज और पेटीकोट पहनने का फैशन जोर पकड़ने लगा और जोर पकड़ने लगे साड़ियाँ पहने और पहनाने के तरीके.
अभी तक साड़ियाँ हैंडलूम से ही बनाई जा रही थीं… फिर 1818 में कोलकाता में भारत की पहली टेक्सटाइल मिल लगाई गई. इनमे पॉवर लूम्स का इस्तेमाल होने लगा. लेकिन सही मायने में भारत में टेक्सटाइल इंडस्ट्री की शुरुआत 1850 के दशक में हुई, जब एक पारसी कॉटन मर्चेंट ने 1854 में बॉम्बे में कॉटन मिल establish की. सेठ शिव नारायण बिड़ला ने इसी समय कॉटन ट्रेडिंग का काम शुरू किया.
1870 के दशक में जमशेदजी टाटा ने मुंबई के चिंचपोकली में बंद हो चुकी आयल मिल खरीदी और उसे कॉटन मिल में बदल दिया. धीरे-धीरे सन 1900 आते-आते सूरत, कोलकाता, मुंबई, अहमदाबाद समेत भारत के कई शहरों में कुल 178 टेक्सटाइल मिल्स रन करने लगीं.
जो साड़ियाँ हाथों से बनाई जाती थीं अब इन मिलों में भी बनने लगीं. बल्क प्रोडक्शन होने लगा…लाखों लोगों को रोजगार मिलने लगा… लेकिन इसका एक दुष्परिणाम भी हुआ… हाथ से काम करने वाले कारीगरों का काम छिनने लगा और सदियों पुराने हाथ से साड़ी बनाने की कला धीरे-धीरे खतरे में पड़ गई और आज ऐसे प्रतिभाशाली कारीगर बस मुट्ठीभर रह गए हैं.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पॉलिएस्टर और नायलॉन का चलन
दोस्तों, World War 2 ख़तम होने के बाद 1940 के दशक में पॉलिएस्टर, नायलॉन और रेयान जैसे सिंथेटिक फाइबर चलन में आ गए और साड़ियाँ बनाने में भी इनका इस्तेमाल होने लगा. आधुनिक मशीनों और नए फाइबर्स के संगम से कम दाम और अधिक मात्रा में साड़ियाँ बनने लगीं. बेल डाईंग, बीम डाईंग, चेन डाईंग, क्रॉस डाईंग जैसे Fabric dying के नए नए तरीके भी आ गए.
डिजिटल प्रिंटिंग की आधुनिक मशीनों से साड़ियों पर कुछ भी प्रिंट करना एक बटन क्लिक करने जितना आसान हो गया. सचमुच साड़ियों का सफ़र कहाँ से शुरू हो कर कहाँ पहुँच गया! रामायण-महाभारत काल से पहनी जा रही साड़ियों का बाज़ार आज 80 हज़ार करोड़ रु का हो चुका है. बॉलीवुड हिरोइनस से लेकर हॉलीवुड की सेलिब्रिटीज तक साड़ियाँ पहन रही हैं.
आज कभी नीता अम्बानी की 40 लाख रुपये की Vivah Pattu Saree सुर्ख़ियों में छाई रहती है तो कभी एक साड़ी पहनाने का 2 लाख रूपये चार्ज करने वाली डॉली जैन ख़बरों में आ जाती हैं.
साड़ियाँ भारतीय संस्कृति का अटूट हिस्सा हैं और अजमेरा फैशन में हम साड़ियों को सिर्फ एक वस्त्र के रूप में नहीं देखते हम इसे एक ऐसे सशक्त माध्यम की तरह देखते हैं जिसका बिजनेस शुरू करके हज़ारों महिलाएं आत्मनिर्भर बन चुकी हैं और आने वाले समय में लाखों महिलाएं इस परिधान से वो सम्मान पा सकेंगी जिसकी वो हकदार हैं. यही हमारी कोशिश है यही हमारा प्रयास है.
उम्मीद करता हूँ साड़ियों का सम्पूर्ण इतिहास जानकर आपको अच्छा लगा होगा. अपना कीमती समय देने के लिए और इस पोस्ट को अंत तक पढने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद.
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फाउंडर & सीईओ
अजमेरा फैशन
सूरत
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Hemant Arya says
Very interesting bhai
Pooja Arora says
I am a fashion designer from NIFD. Want to visit Ajmera Fashion one day.
Chandan Pandey says
This enlightening article beautifully captures the rich tapestry of the saree’s history, tracing its evolution from ancient times to the present day. It highlights saree’s unwavering significance in Indian culture, showcasing how this versatile garment has stood the test of time, evolving yet retaining its essence. A must-read for anyone interested in the cultural heritage of India and the saree’s enduring charm.
Nitin (NIFD) says
itni achhi jankaari poore net pe kahin nahi hai…mera project poora ho gaya