बोली सिर्फ बोली जाती है भाषा लिखी भी जाती है। बोलने के लिए बोली की ध्वनियों के उच्चारण का अभ्यास पर्याप्त नहीं माना जाता। बोली का अपना एक लहजा भी होता है जिसे बोली बोलने वालों के साथ रहकर ही सीखा जा सकता है। इसी तरह लिखने के लिए भी भाषा के लिपिचिह्नों के अंकन की विधि सीखनी पड़ती है।
बोलियों में प्रायः लोक साहित्य मुखरित होता है और भाषाओं में नागर साहित्य लिखा जाता है। ‘लिखना’ का मतलब आदर्श हिंदी शब्दकोश में किसी नुकीली वस्तु से रेखा अक्षर आदि के रूप में चिह्नित करना’ भी है। यूं तो कोई भी बोली या भाषा किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है पर होता क्या है कि हर लिपि किसी भाषा के लिए ही विकसित होती है अतः उसके लिए रूढ़ हो जाती है।
पहले हमारे देश में लिखने के लिए भोजपत्र पर कोई विशेष लेप लगाने के बाद किसी नुकीली चीज से खरोच कर अक्षर आदि बनाए जाते थे। लेखन में यदि एकाधिक पत्रों का प्रयोग होता था तो उन्हें क्रमशः एकत्र कर उनमें ग्रन्थि लगा दी जाती थी। इस प्रक्रिया के प्रमाण स्वरूप चार शब्द आज भी विद्यमान हैं – भोजपत्र से पत्र, लेप से लिपि, खरोचना से लिखना तथा ग्रन्थि से ग्रन्थ।
किसी निरक्षर आदमी को साक्षर बनाने का तात्पर्य होता है उसे उस भाषा के वर्णों तथा अंकों को पढ़ना और लिखना सिखाना ; जिन्हें वह बोलता है। जो संबंध लिखने के साथ पढ़ने का होता है वही संबंध बोलने के साथ सुनने का होता है। आम तौर पर बालक वैसे ही बोलता है जैसे अपनी जननी, परिजन, सहपाठी,अध्यापक आदि को बोलते हुए सुनता है।
किसी भी पीढ़ी को अपनी बोली या भाषा सीखने के लिए उतना प्रयास नहीं करना पड़ता जितना उसकी लिपि को सीखने के लिए करना पड़ता है। लिपि भाषा के उच्चारण में प्रयुक्त होने वाली ध्वनियों को अलग अलग लेखन चिह्नों द्वारा व्यवस्थित करती है। भाषा के उच्चारण में परिवर्तन होते रहते हैं पर लिपि यथावत् बनी रहती है।
लिखने के लिए वर्तनी की जानकारी बहुत जरूरी होती है। बोलने में मुख सुख के लिए मास्साब, डाक्साब, बाश्शा, नमश्कार, ब्रम्ह, धूब्बत्ती, बाच्चीत, दुकान, बजार, मट्टी, क्रपा, श्राप, प्रगट की तरह उच्चरित होने वाले शब्द क्रमशः मास्टर साहब, डाक्टर साहब, बादशाह, नमस्कार, ब्रह्म, धूपबत्ती, बातचीत, दूकान, बाजार, मिट्टी, कृपा, शाप, प्रकट की तरह लिखे जाते हैं।
हर व्यक्ति का अपना शब्द भण्डार होता है जिसमें बचपन से बुढ़ापे तक कुछ न कुछ जुड़ता ही रहता है। पहली बार जब वह किसी शब्द को सुनता या पढ़ता है तब वह उससे अपरिचित होता है। उसके अर्थ से भलीभांति परिचित होने के बाद ही वह उसे अपनाता और अपने बोलने या लिखने में प्रयोग करता है। उसकी भाषा उसके बौद्धिक स्तर का संकेत देती है। अतः अच्छा लिखने के लिए वह अच्छा पढ़ना और अच्छा बोलने के लिए अच्छा सुनना चाहता है।
इस प्रकार भाषा केवल संप्रेषण के सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति ही नहीं करती वरन् अपने बोलने वालों की वैचारिक विरासत को भी सुरक्षित रखती है। एक ओर वह भावनाओं या विचारों की व्यंजना का समर्थ साधन है तो दूसरी ओर वह अपने वक्ता समाज की पहचान का सहज आधार भी है।
डा. हरिश्चन्द्र पाठक
सेवानिवृत्त प्राचार्य
मधुधाम, प्रेमनगर, लोहाघाट – 262524
संपर्क : 09412964279
संक्षिप्त परिचय – उत्तराखण्ड के उच्च शिक्षा विभाग में करीब चौंतीस वर्ष हिंदी अध्यापन, शोध व लेखन से संबद्ध रहे डा. हरिश्चन्द्र पाठक न केवल सेवानिवृत्त प्राचार्य, वरन् एक सहृदय कवि भी हैं। हिंदी की पत्र पत्रिकाओं में लगभग तीन सौ रचनाओं के अतिरिक्त उनके दो गजल संग्रह भी छप चुके हैं । भाषाविज्ञान एवं व्याकरण पर दो पुस्तकें लिखने के अलावा वह भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के सीनियर फैलो भी रहे हैं।
संप्रति : लोहाघाट (उत्तराखण्ड) में अध्ययन एवं लेखन रत।
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We are grateful to Dr. Harish Chandra Pathak for sharing a very interesting write up on Language and Speech in Hindi. Thanks a lot Sir.
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sapkota manoj says
this is great sir.
Nitin Verma says
वाह ! क्या बात. आनंद आ गया पढ़ कर. अत्यंत ज्ञानवर्धक व रचनात्मक सोच से परिपूर्ण.
Gyanipandit says
good job sir, thanks
अनिल साहू says
ज्ञानवर्धक.