सत्यवक्ता स्वामी विवेकानंद
सत्यमेव व्रतं यस्य दया दीनेषु सर्वदा ।
कामक्रोधौ वशे यस्य स साधुः – कथ्यते बुधैः ॥
“केवल सत्य’ जिसका व्रत है, जो सदा दीन की सेवा करता है, काम-क्रोध जिसके वश में है, ज्ञानी लोग उनको साधु कहते हैं”। ऐसे ही श्रेष्ठ देशभक्त सन्यासी विवेकानंद जी को नमन करते हैं और वंदन करते हैं। आपके अद्भुत व्यक्तित्व का प्रकाश असीम और अनंतकाल तक हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत है। आपकी स्पष्टवादिता के हम सभी कायल हैं। स्पष्ट वार्तालाप के अनंत किस्से में से एक किस्सा है.. मैसूर के महाराज श्री चामराजेन्द्र वाडियार के साथ हुई वार्तालाप… भारत भ्रमण के दौरान स्वामी जी की मुलाकात मैसूर में मूलाकांत शेषाद्री से हुई। शेषाद्री स्वामी जी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होने स्वामी जी को मैसूर के महाराज श्री चामराजेन्द्र वाडियार से मिलवाने का प्रबंध किया। हालांकि स्वामी जी के लिए क्या राजा क्या फकीर ईश्वर की सब संतान एक थे।
शेषाद्री जी, महाराज से स्वामी जी की अद्भुत और अंतर्दृष्टी का बखान कर रहे थे। सच तो ये है कि महाराज श्री चामराजेन्द्र, स्वामी जी की छवी एवं राजसी व्यक्तित्व देखकर मन में सोचने लगे कि, स्वामी के चेहरे पर गजब का तेज एवं चुंबकिय आकर्षण है। फिर भी महाराज बोले स्वामी जी आपको क्या चाहिए? स्वामी विवेकानंद ने कहा मुझे आपसे कुछ नही चाहिये, मुझे देनेवाला मेरा प्रभु है। स्वामी जी ने शांत स्वर में कहा राजन मैं तो आपको कुछ देने आया हूं।
यूवा सन्यासी की बात सुनकर सब अचंभित हो गये, राजा भी चकित हो गये। आखिर राजा को किस बात की कमी। राजन को आश्चर्य में देख स्वामी जी ने कहा राजन! मैं आपको वेदों और भारतमाता का संदेश देने आया हूं। स्वामी जी की ओजस्वी वाणी से वशीभूत राजा चामराजेन्द्र ने आत्मीय भाव से कहा स्वामी जी आप राज अतिथि हैं अब आप यहीं निवास करें ताकी मैं आपसे ज्ञान अर्जित कर सकुं।
स्वामी जी की सत्यवादिता से बेखबर राजभवन में महाराज, स्वामी जी से अपनी प्रजा और दरबारियों के बारे में बताने का आग्रह किये। स्वामी जी तुरंत बोले महाराज का ह्रदय उदार और परमार्थी है, परंतु दुर्भाग्यवश आप दरबारियों से घिरे हुए हैं और दरबारी सदा दरबारी ही होते हैं। राज अचकचा गये और बोले नहीं स्वामी जी मेरे दिवान ऐसे नही हैं वो तो आपकी बहुत प्रशंसा करते हैं। स्वामी जी ने कहा वो तो ठीक है महाराज किंतु दिवान का तो काम है राजा को लूटना।
इस तरह के उत्तर की उम्मीद नही थी महाराज को उन्होने तुरंत विषय बदल दिया उन्हे लगा ये चर्चा और बढी तो कहीं कोई दुर्घटना न घट जाये। कुछ अंतराल पश्चात महाराज ने स्वामी जी को अपने कक्ष में बुलाकर आदर भाव से कहा कि, मेरी प्रिय सन्यासी बहुत स्पष्टवादी होना सदैव सुरक्षित नहीं होता। मुझे भय है कि आपके सत्य वचन कहीं आपके दुश्मन न हो जायें, किसी दिन कोई आपको विश न दे दे।
स्वामी जी ओजस्वी स्वर में बोले, प्राणों के भय से सच्चा सन्यासी सत्य बोलना छोङ देगा क्या? स्वामी जी निडर होकर बोले कल यदि आपका पुत्र मुझसे आपके बारे में पूछेगा तो क्या मैं उसे ये नहीं बताऊगा कि, अन्य राजा की तरह आप भी अंग्रेजों की कठपुतली ही हैं। आप किसी भी क्षेत्र में दबाव डालकर अपनी बात नही मनवा सकते थे और न मनवाने का प्रयत्न करते थे।
परिणामतः आपकी प्रजा का अहित ही हुआ जो देश के लिए भी कल्यांणकारी नही रहा। स्वामी जी की बात में इतनी शालीनता थी कि, महाराज को बुरा नही लगा अपितु उन्होने कहा, स्वामी जी आपकी बात सुनकर किसी को भी लग सकता है कि आप मेरी निंदा कर रहे हैं परंतु मुझे पता है बाहर आप मेरी प्रशंसा ही करते हैं। स्वामी जी पूर्ण सत्य वचन आपके हित में नही है। संसार सच की रीति पर नही चलता।
स्वामी जी अपनी प्रखर वाणी में बोले राजन! मैं अपना हित साधने के लिए कुछ नही कहता। मेरा स्वभाव है कि, मैं व्यक्ति के मुखपर उसके दोष बताता हूं, लेकिन उसकी अनुपस्थिति में उसके गुणों का बखान करता हूं। मैं संसार की रीति से अलग संसार को नीति सिखाने आया हूं।
महाराज शांत स्वर में बोले स्वामी जी आप सबसे महान हैं, आप संसार में असाधारण कार्य के लिए अवतरित हुए हैं अतः मैं नही चाहता की आप पर किसी भी प्रकार का संकट आये स्वामी जी ने कहा राजन! आप सही हैं किन्तु न मैं असत्य भाषण करता हूं न सत्य को छिपाने के लिये मौन रहता हूं। सत्य को हज़ार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी हर एक सत्य ही होगा।
ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि निर्भिक स्पष्टवादी स्वामी विवेकानंद जी के लिए देश, भारत माता का गौरव एवं सनातन की प्रासंगिता सबसे प्रिय थी। उनका कहना था कि, मनुष्य के द्वारा दिए गये ईश्वर के नामों में सर्वश्रेष्ठ नाम सत्य है। ये हर्ष का विषय है कि आज भी स्वामी जी के विचारों को युवा भी सम्मान करता है। भारतमाता की उज्जवल भविष्य की मंगलकामना के लिए स्वामी जी को अपने प्राणों की परवाह कभी नही थी।
भारत भ्रमण हो या विदेश स्वामी जी सदैव सत्य वचन के मार्ग पर ही चले। स्वामी जी की वाणी और शब्दरचना में अलौकिक कुशलता थी, जिससे सत्यतता का भान होने पर व्यक्ति अपनी गलतियों को सुधारने का प्रयास करता था। हम सबके श्रद्धेय युगपुरूष स्वामी विवेकानंद जी को कोटी-कोटी नमन, उनके प्रेरक संदेश के साथ अपनी कलम को विराम देते हैं..
“किसी की निंदा ना करें, अगर आप मदद के लिए हाथ बढ़ा सकते हैं, तो ज़रुर बढाएं”
जय हिंद वंदे मातरम्
अनिता शर्मा
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aaj ke din ye post baut maayne rkahti hai ..thank you sir