Birsa Munda Biography Hindi
बिरसा मुंडा की जीवनी
भारतीय इतिहास के पन्नों में कुछ ऐसे महानायक मिलते हैं, जो अपनी उम्र से कहीं अधिक महान और अपने कद से कहीं अधिक ऊंचे थे. आज मैं आपको ऐसे ही परमवीर क्रांतिकारी की गाथा सुनाने जा रहा हूँ, जो महज 25 साल की उम्र में एक हाथ में तीर कमान लेकर और दुसरे में स्वतंत्रता की मशाल जला कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ा और अंग्रेजी हुकूमत की ईंट से ईंट बजा दी.
जी हाँ आज मैं आपको सुनाऊंगा कहानी जल-जंगल-जमीन के असली मालिक आदिवासियों के जननायक, धरती आबा – बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की…..जिनका जीवन हमें सिखाता है कि ज़िन्दगी लम्बी हो न हो….महान ज़रूर होनी चाहिए!
नमस्कार दोस्तों, मैं अजय अजमेरा स्वागत करता हूँ आपका आपके अपने Blog achhikhabar(dot)com में।
शहीद-ए-आज़म भगत सिंह और बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर की कहानी हर किसी को रोमांचित करती है लेकिन आपको जानकार आश्चर्य होगा कि इनसे पहले भी भारत माँ की कोख से एक ऐसे बालक ने जन्म लिया जिसके अन्दर भगत सिंह जैसा शौर्य भी था और अपने लोगों का उत्थान करने की बाबा साहेब जैसी जिद भी! नाम था बिरसा मुंडा.
जन्म और परिचय
15 November 1875 को रांची के उलिहातु गाँव की एक छोटी सी झोपड़ी, जहाँ गरीबी की मार और अंग्रेजी अत्याचार का साया था, पिता सुगना मुंडा और माता करमी हातू के घर में जन्म लिया बिरसा मुंडा ने.
वही बिरसा मुंडा जिन्हें आज करोड़ों आदिवासी भगवान का दर्जा देते हैं…जिनके जन्म दिवस के दिन को ही झारखण्ड राज्य के स्थापना दिवस के रूप में चुना गया…और जिनके नाम से आज संग्रहालय से लेकर विश्वविद्यालय तक और stadium से लेकर एअरपोर्ट तक का मौजूद हैं. जी हाँ, वही बिरसा मुंडा जिनके जन्मदिन को हर साल पूरा भारत जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाता है.
लेकिन दोस्तों, जब बिरसा पैदा हुए थे तब परिस्थितियां बहुत विकट थीं!
उनके परिवार के पास ना पहनने को कपड़े थे, ना खाने को रोटी!
बिरसा के माता-पिता, बच्चों को लेकर यहाँ-वहां भटकते रहते थे.
शिक्षा प्राप्ति के लिए बदला धर्म
बिरसा का बचपन भी जंगल में घूमने, मवेशियों को चराने और बांसुरी बजाने में बीत रहा था….कहते हैं कि बिरसा इतनी मधुर बांसुरी बजाते थे कि लोग मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनने लग जाते थे!
फिर एक दिन वो आया जब परिवार के एक फैसले ने उनकी ज़िन्दगी को नया मोड़ दे दिया.
दरअसल, रोजी-रोटी की तलाश में परिवार सलगा गाँव आ गया. यहीं पर जयपाल नाग नाम के एक शिक्षक की नज़र बिरसा पर पड़ी.
बिरसा की तीव्र बुद्धि और सीखने की ललक देख कर जयपाल नाग बहुत प्रभावित हुए.
उन्होंने उन्हें ज्ञान की बातें बतानी शुरू की. भारतीय संस्कृति और इतिहास के बारे में बताया. बिरसा बहुत जल्द काफी कुछ सीख गए.
तब जयपाल नाग ने उन्हें चायबासा के German Mission School में पढ़ने के लिए प्रेरित किया.
लेकिन उस स्कूल में दाखिले की एक शर्त थी. वहां पढ़ने के लिए इसाई धर्म अपनाना ज़रूरी था.
शिक्षा प्राप्त करने के लिए बिरसा ने इसाई धर्म अपनाया…..
वह बिरसा मुंडा से Birsa David बन गए…. वहां रह कर जहां एकतरफ उन्हें देश-दुनिया की जानकारी मिली, सही-गलत की समझ आई, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने महसूस किया कि इन जैसे स्कूल का मकसद शिक्षा देना नहीं बल्कि आदिवासियों का धर्मांतरण कर उनके एक हाथ में बाइबिल थमाना और दुसरे हाथ से जंगल और जमीन छीन लेना था.
आदिवासियों की बुराई सुन कर कक्षा छोड़ दी
फिर एक दिन जब किसी अंग्रेज टीचर ने पढ़ाते-पढ़ाते आदिवासियों की बुराई शुरू कर दी…. उनकी संस्कृति, उनके तौर तरीकों का अपमान किया तो उसी वक़्त बिरसा कक्षा छोड़ कर निकल गए और फिर कभी लौट कर स्कूल नहीं आये.
बिरसा मिशनरी स्कूलों की चाल समझ चुके थे…. उन्होंने इसाई धर्म त्याग दिया और लौट कर अपने घर वापस आ गए….
घर की स्थिति दयनीय थी…. उनके परिवार के पास खाने को कुछ भी नहीं था….वे जंगली पत्तियां उबाल कर उसके पानी से अपना पेट भर रहे थे…
बिरसा का मन द्रवित हो उठा, क्योंकि ये स्थिति सिर्फ उनके परिवार की नहीं बल्कि लाखों आदिवासियों की थी…. उन्होंने मन ही मन संकल्प लिया कि वे इन हालात को बदलेंगे, अंग्रजों और जमींदारों के अत्याचार से अपने समाज को मुक्ति दिलाएंगे और आदिवसियों के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर देंगे.
बिरसा घर छोड़ कर जाने लगे! पिता ने समझाया – पढ़ा लिखा है, अंग्रेजों की चाकरी कर ले, जीवन आराम से कटेगा!
पर बिरसा को अपने आराम की नहीं अपने लोगों के सुख-चैन की चिंता थी! उन्हें चिंता थी अपने देश की सरजमीं से अंग्रेजी हुकूमत उखाड़ फेंकने की. वह घर से निकल पड़े.
बिरसा मुंडा की इस सोच के लिए मैं उन्हें सलाम करता हूँ और निवेदन करता हूँ आपसे कि अगर आप भी उनके बलिदान को महत्वपूर्ण मानते हैं तो इस पोस्ट को शेयर ज़रूर करें उन लोगों से, जो अभी तक बिरसा मुंडा की शख्शियत से अनजान हैं.
दोस्तों, बिरसा का मानना था कि आदिवासी…यानी जिनका वास आरम्भ से रहा हो वही जल-जंगल-जमीन के असली मालिक हैं. कागज के टुकड़े पर ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट’ पास करके…या आदवासियों की सहमती के बिना कोई भी क़ानून बना कर दुनिया की कोई ताकत उनसे उनका अधिकार नहीं छीन सकती!
बिरसा ने मन ही मन महा क्रांति का उद्घोष करने की ठानी और आगे चल कर एक ऐसा नारा दिया जो आजभी 10 करोड़ आदिवासियों के रगों में बह रहे लहू में उबाल ला देता है… वह नारा था…. ‘उलगुलान’ ‘उलगुलान’ ‘उलगुलान’!
‘उलगुलान’ यानी महा क्रांति!
पर ‘उलगुलान’ ऐसे ही नहीं आ जाता इसके लिए जरूरत थी विभिन्न जन-जातियों के आदिवासियों को एक करने की! एक संगठन बना कर अंग्रेजों से लोहा लेने की.
दोस्तों, सोचिए ….आज के युग में जब आप इन्टरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से एक बटन दबा कर लाखों-करोड़ों लोगो तक पहुँच सकते हैं, फिर भी लोगों को किसी मकसद के लिए mobilize करना कितना मुशिकल होता है … तो 1890 के काल में अशिक्षित आदिवासियों को प्रेरित करना, ताकतवर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उन्हें एक-जुट करना…कितना मुश्किल रहा होगा!
पर बिरसा मुंडा आज यूँही नहीं पूजे जाते, उस समय विपरीत परिस्थितियों और सिर्फ 20-25 साल की उम्र में उन्होंने वो कर दिखाया जो आज सोचकर भी असम्भव लगता है.
इसीलिए बिरसा मुंडा का जीवन सिर्फ आदिवासियों के लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रेरणा का महान स्रोत है. मैं तो झारखण्ड-बिहार के आदिवासी क्षेत्रों से अजमेरा फैशन आने वाले कपड़ा व्यापरियों से कई बार बिरसा मुंडा को लेकर चर्चा करता हूँ. और वे उनके बारे में जो कहनियाँ सुनाते हैं उन्हें सुनकर मेरे अन्दर जोश भर जाता है.
सचमुच कितने महान थे बिरसा मुंडा! उस जमाने में इतना बड़ा काम करना कोई मामूली बात नहीं!
मगर सवाल है कि बिरसा मुंडा ने ये किया कैसे ? आइये जानते हैं उनकी दिलचस्प दास्ताँ:
घर छोड़ने के बाद बिरसा जंगलों में चले गए! वे जड़ी-बूटियों का अध्यन और अनुसंधान करने लगे. धीरे-धीरे उन्होंने कई तरह की बिमारियों का इलाज करना शुरू कर दिया. उनकी प्रसिद्धि पूरे क्षेत्र में फ़ैल गई. दूर-दूर से झुण्ड के झुण्ड उनके पास इलाज कराने आने लगे!
दोस्तों, एक प्रचलित मान्यता ये भी है कि बिरसा मुंडा पर आदिवासियों के भगवान सिंगबोंगा की कृपा हुई थी. उनपर बिजली गिरने के कारण उनका रंग श्याम हो गया और उनके अन्दर ऐसी चमत्कारी शक्ति आ गई, जिससे वह किसी का छू कर भी इलाज कर सकते थे.
खैर! जो भी हो, लोगों का इलाज करना एक माध्यम बन गया अपनी बात जनता के बीच पहुचाने का, नये संपर्क बनाने का और लोगों को ‘उलगुलान’ के लिए तैयार करने का.
उन्होंने आदिवासियों को समझाया कि यह धरती उनकी है और किसी को भी उन्हें इससे अलग करने का अधिकार नहीं है. चाहे वो अंग्रेजी हुक्मरान हों या कोई जमींदार या साहूकार.
बिरसा ने छापामार युद्ध की नीति अपनाई, कई युवा तीर-कमान लिए उनकी सेना में शामिल हो गए और आदिवासियों पर जुल्म ढाहने वाले अत्याचारियों से बदला लेने लगे!
“धरती पिता” का बिरुद
बिरसा ने न जाने कितने आदिवासियों को विस्थापित होने से बचाया और उनकी जमीन उन्हें वापस दिलाई…..छोटा नागपुर पठार के उस क्षेत्र जो छत्तीसगढ़, ओडिशा, वेस्ट बंगाल और बिहार तक फैला हुआ था, में बिरसा ‘धरती आबा’ यानि ‘धरती पिता’ के रूप में जाने जाने लगे.
बिरसा ने अपने रण कौशल और युद्ध नीति से कई बार अंग्रेजों को मात दी. उनके तीर-कमान के सामने बन्दूक थामे अंग्रेजी सैनिक भी थर-थर कांपते थे. उन्होंने कई पुलिस चौकियों को लूटा और थाने जला कर ख़ाक कर दिए. अंग्रेजो के झंडे यूनियन जैक को हटा कर अपना सफ़ेद ध्वज लहरा दिया.
बिरसा ने ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानि ‘हमारा देश, हमारा राज’ का नारा दिया.
उन्होंने ताकतवर अंग्रेजी हुकूमत को ललकारते हुए कहा –
“अबुआ राज एते जाना….महारानी राज टुल्लू जाना”
यानी …. हमारा राज आएगा महारानी का राज जाएगा !
उनके आह्वान पर लाखों आदिवासी जंगल पर अपना हक़ लेने के लिए एकजुट हो गए. उनकी एकता और शक्ति देखकर अंग्रेजों को आदिवासियों की भूमि छोड़ कर पीछे हटना पड़ा!
ब्रिटिश हुकूमत ने बिरसा के उलगुलान को कुचलने की लाख कोशिशें की लेकिन आदिवासियों के गुरिल्ला युद्ध के आगे उनकी एक न चली. 1897 से 1900 के बीच आदिवासियों और अंग्रेजों के बीच कई लड़ाईयां हुईं. पर हर बार अंग्रेजी हुकूमत ने मुंह की खाई.
बिरसा मुंडा की प्रसिद्धि से बौखलाई अंग्रेजी हुकूमत
बिरसा मुंडा की बढती प्रसिद्धि और ताकत के चर्चे इंग्लैंड में बैठे तानाशाह अधिकारियों तक पहुंचने लगे. ब्रिटिश सरकार बिरसा मुंडा को बहुत बड़े खतरे के रूप में देखने लगी.
बिरसा से छुटकारा पाना उनकी टॉप priority बन गई. और तब अंग्रजों ने एक चाल चली. उन्होंने बिरसा को पकडवाने पर 500 रुपये का इनाम रख दिया. 125 साल पहले ये रकम बहुत बड़ी थी!
कुछ लोग इस लालच में आ गए और मुखबिरी करने लगे!
जिसका नतीजा ये हुआ कि सन 1900 में बिरसा मुंडा की जन्मभूमि उलिहातू के नजदीक डोमबाड़ी पहाड़ी पर जब बिरसा एक बड़ी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे, तभी अंग्रेज़ी बटालियनो ने पहाड़ी को चारो तरफ से घेर लिया और अंधाधुंध गोलियां बरसाने लगे.
ये ठीक वैसा ही क्रूर मंजर था जैसा उन्नीस साल बाद 1919 में जलियांवाला बाग़ में देखने को मिला था.
मुखबिरी का शिकार हुए
एक अनुमान के मुताबिक उस दिन डोमबाड़ी पहाड़ी पर चार सौ से अधिक लोग मारे गए थे, जिसमे कई महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे. जबकि सरकार ने सिर्फ 11 मौतों का आंकडा दिया. मौतें छिपाने के लिए सिपाहियों ने कई लाशें पहाड़ियों से नीचे फेंक दी.
हालाँकि, इन सबके बीच बिरसा बच कर निकलने में कामयाब हो गए थे.
लेकिन अफ़सोस वे अधिक दिनों तक खुद को बचा नहीं पाए…. उन्ही के किसी अनुयायी ने पैसों की लालच में अंग्रेजों को उस झोपड़ी का पता दे दिया जिसमे वे छिपे हुए थे.
3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में बिरसा गिरफ़्तार कर लिये गये. उन्हें डंडों और कोड़ों से मारा गया.
कहते हैं पुलिस लोगों के बीच अपना खौफ बढाने के लिए बेड़ियों में बाँधकर उन्हें जब रांची की जेल ले जा रही थी तब हज़ारों की तादाद में लोग सड़क के दोनों ओर अपने नायक की एक झलक पाने के लिए खड़े हो गए.
उन्होंने ने अपनी आँखों से देखा कि कैसे सिर्फ 25 साल और 5 फुट चार इंच का एक नौजवान अपने लोगों के दर्द दूर करने के लिए खुद इतने अत्याचार सह रहा है….
बिरसा का शरीर रक्त रंजित था….
पूरे शरीर पर चोट के निशान उभरे हुए थे लेकिन फिर भी उनके चेहरे पर असीम संतोष और होंठों पर विजयी मुस्कान बिखरी हुई थी….
उनकी नज़रें मानो ये कह रही हों कि तुम मुझे कैद कर सकते हो लेकिन मेरे विचारों को नहीं ….
मेरे जाने के बाद भी मेरा उलगुलान ज़िंदा रहेगा और आदिवासियों को जल-जंगल-जमीन का अधिकार दिलाता रहेगा.
रहस्यमयी मृत्यु : कारण बीमारी या धीमा ज़हर
25 साल की उम्र में, 9 जून 1900 को रांची जेल में उन्होंने अंतिम साँस ली. अंग्रेजों ने मौत का कारण हैजा बताया लेकिन कहते हैं कि उन्हें धीमा ज़हर देकर मारा गया.
लेकिन बिरसा मुंडा का बलिदान व्यर्थ नहीं गया. उनके जाने के बाद भी ‘उलगुलान’ जिन्दा रहा और आखिरकार 1908 में ब्रिटिश सरकार को आदिवसियों के सामने झुकना पड़ा, Chota Nagpur Tenancy Act पास किया गया, जिसने जल-जंगल जमीन पर आदिवसियों के अधिकार को सुरक्षित कर दिया.
दोस्तों, वास्तव में बिरसा मुंडा जैसे देशभक्त और जननायक कभी मरते नहीं, बल्कि हमेशा जीवित रहते हैं अपने संघर्ष और बलिदान की अमर गाथा में!
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अंत में धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा के चरणों में शत-शत नमन!
जय जोहार ! जय बिरसा मुंडा !
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