योग-क्षेम
मित्रों, अक्सर ऐसा होता है कि हम जब भी किसी महत्वाकांक्षा अथवा उच्च आदर्श को लेकर आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं तो हमें अनेकों कठिनाइयों और बाधाओं का सामना करना पड़ता है| अनेकों प्रलोभित और आकर्षित करने वाली ऐसी योजनाएं सामने आ खड़ी होती हैं कि जिनके बारे में सोच-सोच कर हम अपनी मानसिक और शारीरिक, दोनों ही शक्तियों का अपव्यय करके, उनको व्यर्थ नष्ट करके इतने थक जाते हैं कि कई बार चुने हुए कार्य को पूरा करना काफ़ी हद तक मुश्किल हो जाता है |
दरअसल, “आत्मसंयम” का अभाव ही इसका मूल कारण होता है |एक अन्य बात जो अत्यधिक महत्वपूर्ण है,वह यह है कि आधुनिक युग में हम प्रायः इस मूल तथ्य को भुला सा देते हैं कि हमारी निर्माण-प्रक्रिया का पहला चरण—हमारी सोच,हमारे विचार, हमारी संकल्प-शक्ति ही हमारा ‘कर्मबल’ होता है और अगर वही शक्तिदायक-स्रोत ही बिखर जाये तो …निर्माण-कार्य कैसे प्रभावशाली हो ?लक्ष्य प्राप्ति की “इमारत” तो सदा मानव की चित्त-एकाग्रता,निर्धारित किए हुए आदर्श के प्रति निरंतर स्फूर्ति, उत्साह और सामर्थ्य के साथ-साथ ‘चिंतन रूपी’ नींव पर खड़ी रहती है |इस तरह सफलता-प्राप्ति अथवा अपने कार्य द्वारा यशस्वी बनने के रहस्य की तीन कुंजियाँ स्पष्ट रूप से हमारे सामने हैं…पहली-संकल्प की निरंतरता, दूसरी—निश्चित लक्ष्य के लिए अपनी शारीरिक,मानसिक एवं बौद्धिक क्षमताओं का सम्पूर्ण सदुपयोग और तीसरी कुंजी है—आत्मसंयम |
भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता जी में कहा है कि—
अनन्याश्चितयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते |
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहं ||
अर्थात् जब भी कोई व्यक्ति पवित्र उद्देश्य से कोई भी कार्य हाथ में लेता है और यदि अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य, प्रयत्न एवं आत्मसंयम के साथ अपने संकल्प को बनाये रख सकता है, तो उसे अपने “योग” और “क्षेम” की चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह उत्तरदायित्व स्वयं ‘प्रभु’ अपनी इच्छा से निभाया करते हैं |आदिगुरु श्री शंकराचार्य के अनुसार योग का अर्थ होता है—“अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष” तथा “प्राप्त वस्तु के रक्षण के लिए प्रयत्न” ही क्षेम जाना जाता है |
मित्रों, वस्तुतः,जीवन में समय-समय पर एवं भिन्न-भिन्न स्थानों पर आने वाले विरोध, स्पर्धा, संघर्ष और दुःख—हमारे तनाव या चिंता का कारण केवल इसीलिए बना करते हैं क्योंकि हम सदा अपने ‘योग’ तथा ‘क्षेम’ की चिंता से ग्रस्त रहा करते हैं | अब, जब हम, उस “शाश्वत- नियम” से परिचित हो ही चुके हैं कि मात्र “कर्म” में ही हम विश्वास और आस्था रखें,शेष की चिंता सदा “उसे” है—तो क्यों न चिंतामुक्त हो कर, हृदय में पवित्र उद्देश्य ले कर अपने कार्यों को पहले से बेहतर बनाने की कोशिश में आज और अभी से लग जाएँ ?
शुभमस्तु
रजनी सडाना
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I am grateful to Mrs. Rajni Sadana for sharing her wonderful write-up with AKC. Thanks for inspiring us.You can also read her articles here: http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/AatmBodh/
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देवशंकर गुपता says
धनयवाद योग से संबंधित जानकारी देने के लिए
Ibrahim Beg says
Yogashcha karmasu kaushalam
subhash upadhyay says
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Anonymous says
योगका अर्थ है अपने मनुष्य जन्मको सार्थक बना लेना इस शरीरको बनाके चलाने वालेसे अपनी दुरिया मिटा देना अपने श्वासको मोक्ष द्वारमें बिठा लेना याने सभी शरीरोको, जिवोको देखते हुवेभी सिर्फ और सिर्फ (स्व)काही दर्शन करना याने अपने आपकोही देखना सभी जीवोमें सिर्फ यह मनुष्य शरीर एक ऐसा मथक है जीसमे भगवानका साक्षात्कार हो सकता है बस सिर्फ ईसेही योग कहते है ।
Anurag says
Excellent explanation of an important issue which we young guys could not understand easily ….. Pls keep on writing these things.
brajendra singh says
Madam Rajni Ji
Beautifully written the crisp message (Mantra) of GITA to all human beings. Kudo to all efforts of team of Acchikhabar.com. Keep it up. May GOD bless all souls.