Sahir Ludhianvi Life History Shayari in Hindi
साहिर लुधियानवी की जीवनी
ज़ज्बे, एहसास, शिद्दत और सच्चाई के शायर साहिर लुधियानवी उन चुनिंदा शायरों में से हैं जिन्होने फिल्मी गीतों को तुकबंदी से निकाल कर दिलकश शेरों शायरी की बुलंदियों तक पहुँचाया। वे पहले ऐसे गीतकार थे जिन्होने संगीतकारों को अपने पहले के लिखे गानो को स्वरबद्ध करने के लिये मजबूर किया।
जन्म व बचपन
माहन शायर साहिर लुधियानवी ( Sahir Ludhianvi ) का जन्म 8 मार्च 1921 को पंजाब के लुधियाना शहर में ज़मींदार परिवार में हुआ था। साहिल के बचपन का नाम अब्दुल हई था। इस नाम के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। यूं तो ये नाम कुरान में शिद्दत से लिया जाता है किन्तु इस नाम को रखने का कारण कुछ और ही था।
दरअसल पिता के पड़ोस में अब्दुल हई नाम का एक नामचीन राजनितिज्ञ रहता था। साहिर के पिता फजल मुहम्मद की इससे रंजिश थी लेकिन उसके सामाजिक रुतबे के कारण वो उसे कुछ कह नही सकते थे। अतः अपने मन की भड़ास निकालने के लिये उन्होने अपने बेटे का नाम अब्दुल हई रखा। अक्सर वो अपने पड़ोसी को सुनाकर गालियां देते जब वो राजनितिज्ञ पूछता की ये क्या बात है, तो साहिर के पिता कहते कि मैं तो अपने बेटे को गालियां दे रहा हूँ तुमको नही।
इस अजीबो गरीब माहौल में बालक अब्दुल का बचपन बीता। कहने को तो साहिर का जन्म ज़मींदार के घर हुआ लेकिन पिता की अय्याशी ने सब तबाह कर दिया था। पिता फजल मोहम्द ने 12 औरतों से विवाह किया था। साहिर 11 वीं बेगम सरदार के पुत्र थे और खानदान के इकलौते चिराग क्योंकि बाकी बेगमों से कोई औलाद नही हुई थी।
सरदार बेगम फजल की हरकतों को बर्दाश्त नही कर पाईं और उन्होने तलाक ले लिया और अपने भाई के पास रहने लगी। क्योंकि वो अपने बच्चे को इस माहौल से निकालकर उंची तालीम देना चाहती थीं। चार साल के साहिर से जब जज ने पूछा कि किसके साथ रहना चाहते हो तो उन्होने कहा अम्मी के साथ।
अलग हो जाने पर भी सरदार बेगम को डर रहता था कि कहीं फजल के गुर्गे बेटे अब्दुल को उठा न लें जाये इसलिये वो हर पल अपने बेटे को पास ही रखती या अपने भाई के देख-रेख में कहीं भेजती। मासूम अब्दुल इस माहौल में गुमसुम रहने लगा और हर किसी को शक की नजर से देखता था।
शिक्षा
बचपन की शिक्षा शिक्षा स्कूल में हुई तो साहिर मुस्लिम तहजीब से कुछ दूर हो गये और उनके अधिकतर दोस्त भी सिख या हिन्दू लड़के ही थे। उनका बचपन बहुत दिलचस्प रहा वो बचपन में अजीबो-गरीब जिद्द करते थे। दूध पीने में बहुत आनाकानी करते, जब दूध दिया जाता तो कहते इसमें पानी मिलाओ और जब पानी मिला दिया जाता तो कहते इसे अलग अलग करो। उनकी अम्मी उन्हे आंख बंद करने को कहती और दो गिलास सामने रखती जिसमें एक में पानी और दूसरे में दूध रहता, अब्दुल समझते कि पानी अलग हो गया और दूध पी लेते थे।
शायरी में रूचि
बचपन में एकबार एक मौलवी ने कहा कि ये बच्चा बहुत होशियार और अच्छा इंसान बनेगा। ये सुनकर मां के मन में सपने जन्म लेने लगे कि वह अपने बेटे को सिविल सर्जन या जज बनायेंगी। जाहिर है अब्दुल का जन्म जज या सिविल सर्जन बनने के लिये नही हुआ था। विधी ने तो कुछ और ही लिखा था। बचपन से ही वो शेरो-शायरी किया करते थे और उनका शौक दशहरे पर लगने वाले मेलों में नाटक देखना था। साहिर अपनी मां को बहुत मानते थे और तहे दिल से उनकी इज्जत करते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि मां को कोई दुःख न हो।
उस समय के मशहूर शायर मास्टर रहमत की सभी शायरी उस दौरान उन्हे पूरी याद थी। बचपन से ही किताबे पढने का और सुनने का बहुत शैक था और यादाश्त का आलम ये था कि किसी भी किताब को एक बार सुन लेने या पढ लेने पर उन्हें वो याद रहती थी। बड़े होकर साहिर खुद ही शायरी लिखने लगे। शायरी के क्षेत्र में साहिर, खालसा स्कूल के शिक्षक फैयाज हिरयानवी को अपना उस्ताद मानते थे। फैयाज ने बालक अब्दुल को उर्दु तथा शायरी पढाई। इसके साथ ही उन्होने अब्दुल का तवारुफ साहित्य और शायरी से भी कराया।
साहिर के गीतों में तत्कालीन समाज की समस्याओं तथा देश के आम इंसान की दयनीय स्थिती का इतना सशक्त चित्रण देखने को मिलता है कि वह दर्शकों के दिल को छू जाता है। वो जिंदगी का फलसफा अपने गीतों मे आसानी से बंया कर देते थे। प्यासा फिल्म का गाना “जिन्हे नाज है हिन्द पर वे कहाँ हैं” गीत सुनकर जवाहर लाल नेहरु जी की आँखे नम हो गई थी। रुह को छू जाने वाली शायरी उस दौर में हर जवां दिल में धड़कती थी। उनकी शायरी अंधेरों में डुबे लोगों के लिये आशा के सूरज के समान है। एक ही मजहब का संदेश देने वाली उनकी शायरी इंसानियत को बंया करती है।
रोचक प्रसंग जिसने अब्दुल को साहिर बनाया
अब्दुल से साहिर लुधियानवी बनने का भी किस्सा बहुत रोचक है, बात 1937 की है, जब वे मैट्रिक परिक्षा की तैयारी कर रहे थे। पाठ्य पुस्तक पढने के दौरान उन्होने इकबाल की उस नज़म को पढा जो 19 वीं सदी के महान शायर दाग दहलवी की प्रशंसा में लिखी गई थी। वो पंक्तियां इस प्रकार थी……
चल बसा दाग, अहा! मय्यत उसकी जेब-ए-दोष है
आखिरी शायर जहानाबाद का खामोश है
इस चमन में होंगे पैदा बुलबुल-ए-शीरीज भी
सैकडों साहिर भी होगें, सहीने इजाज भी
हुबहु खींचेगा लेकिन इश्क की तस्वीर कौन
इस शायरी में अब्दुल को साहिर शब्द बहुत पसंद आया , जिसका शाब्दिक अर्थ हेता है जादुगर। अब्दुल ने साहिर के आगे अपने जन्म स्थान का नाम रखकर अपना नया नाम साहिर लुधयानवी बना लिया।
काव्य संग्रह
साहिर का पहला काव्य संग्रह तल्खियां बहुत लोकप्रिय हुआ। उसकी सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि, उनके जीवनकाल में 25 संस्करण केवल दिल्ली से निकल चुके थे, जिनमें 14 हिंदी में थे। इसके अलावा रूसी, अंग्रेजी तथा अन्य कई भाषाओं में इसका संस्करण निकल चुका था। पाकिस्तान में तो आज भी ये आलम है कि कोई भी प्रकाशक जब नया प्रकाशन शुरु करता है तो पहली प्रति तल्खियां की ही प्रकाशित करता है।
मशहूर शायर कैफी आजमी ने साहिर तथ तल्खियां की तारीफ में कहा-
मैं अक्सर यह सोचने पर मजबूर हो जाता हूँ कि मैं साहिर को उनकी शायरी के जरिये जानता हूँ या फिर उनकी शायरी को खुद उनके जरिये से; मैं यह कबूल करता हूँ कि इस बारे में मैं अभी तक किसी नतीजे पर नही पहुँचा हूँ। ऐसा महसूस होता है कि, साहिर ने अपनी शख्सियत का जादू अपनी शायरी में उतार दिया है और उनकी शायरी के जादू का अक्स उनकी शख्सियत में हूबहु उतर आया है। तल्खियां पढते समय ऐसा महसूस होता है कि शायर की रुह अपनी बुलंद तथा साफ आवाज में बात कर रही है।
साहिर की शौहरत तो शायरी की वजह से खूब बढ रही थी किन्तु शौहरत से पेट नही भरता। शायरी के चक्कर में पढाई भी बीच में छूट गई थी। मां तथा खुद का पेट भरने के लिये काम की तलाश करना हिमालय की ऊँचाई जैसा विशाल था। इसी दौरान उन्हे ‘अदब ए लतीफ पत्रिका में संपादकी का काम मिला जहाँ शोहरत तो खूब मिली लेकिन 40 रूपये मेहनताने में घर चलाना मुश्किल था।
फ़िल्मी सफ़र का आगाज़
साहिर का सपना था फिल्मो में गीत लिखने का। 1945 में उन्हे ‘आजादी की राह पर‘ फिल्म में कुछ गाने लिखने को कहा गया, साहिर ने तनिक भी देर न करते हुए हाँ कर दी और मुम्बई आ गये तथा अपने साथ हमीद अख्तर को भी ले आये। साहिर ने उनके लिये हिन्दुस्तान कला मंदिर में काम भी ढूंढ लिया।
1946 का जनवरी महीना वो यादगार महीना रहा जब उन्होने मुम्बई की तरफ रुख किया और जिसने उनकी भावी जिंदगी का रुख ही बदल दिया था। 1946 में साहिर जब मुम्बई आये तो उन्हे मजरूह सुल्तान पूरी, कैफी आजमी, मजाज लखनवी जैसी महान हस्तियों के सम्पर्क में आने का अवसर भी मिला।
मज़हबी दंगे
इसी दौरान पंजाब में हिंसा की खबर साहिर को मिली, वो रात भर सो न सके। पंजाब की बदनुमा हिंसा से व्यथित साहिर का गुस्सा उनकी नज़म में दिखता है।
ये जलते हुए घर किसके हैं , ये कटे हुए तन किसके हैं
तकरीम के अंधे तुफा में , लुटते हुए गुलाब किसके हैं
ऐ सहबर मुल्क ओ कौम बता, ये किसका लहु है और कौन मरा
इस हिंसा और नफरत के बीच आजादी मिली। तमाम प्रगतिशील लेखक तथा कवी मुम्बई में कौमी एकता की अपील करने के लिये सड़कों पर उतर आये थे। मजहब के नाम पर हुए इस बंटवारे से आहत होकर साहिर ने कहा था कि, नफरत की बलिवेदि पर मिली ये आजादी खोखली है और ये देश के लिये नई चुनौतियां खड़ी कर सकता है।
साहिर की मां उस समय लुधियाना में ही थीं, लिहाज़ा उनकी सुरक्षा की दृष्टी से साहिर उन्हे लेने लुधियाना चल दिये। सफर में हिंसा के मंजर को उन्होने भी देखा और 11 सितंबर 1947 को आकाशवाणी पर उन्होने मजहबी हिंसा को इस तरह बयां किया….
साथियों! मैने बरसों तुम्हारे लिये
चांद, तारों, बहारों के सपने बुने
आज लेकिन मेरे दामन-ए-चाक में
गर्द-राहे सफर के सिवाय कुछ नही
मेरे बरबात के सीने में नगमों का दम घुट गया है
ताने चीखों के अंबार में दब गई हैं
और गीतों के सुर हिचकियां बन गये हैं
मैं तुम्हारा मुगन्नी हूं , नगमा नही हूं
और नगमें की तखलीक का साज-ओ-सामान
साथियो! आज तुमने भस्म कर दिया है ….
इसी बीच उनकी मां को एक दोस्त अपने घर लाहौर ले गया था। जब साहिर लाहौर में मां को सुरक्षित देखे तो उनकी जान में जान आई। मजहबी दंगो से लाहौर के हालात ऐसे हो गये थे कि मानों किसी ने शहर की रूह को ही निकाल दिया हो।
मुफलिसी के दिन
वहाँ के माहौल में मुम्बई भी लौटना मुमकिन नही था। अतः वहीं मन मारकर सवेरा पत्रिका में संपादक के रूप में काम करने लगे। संपादक के रूप में वो सरकार की तीखी आलोचना करते थे।
उन्होने ‘आवाज-ए-आदम‘ नज्म में तो सरकार को ये चेतावनी दे दी कि, यदि उसने अपने रवैये में परिवर्तन नही किये तो जनता उसे उखाड़ फेंकेगी। जाहिर है ये भड़काऊ शायरी सरकार को पसंद नही आई और उनकी गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया।
साहिर को इस वारंट का पता चल गया था, वो छिपकर दिल्ली पहुँच गये और अपने दोस्त प्रकाश पंडित की मदद से माँ को भी दिल्ली बुलवा लिये। संघर्ष का दौर बरकरार रहा फिल्मों में गीत का अवसर नही मिल पा रहा था। मुफलिसी के इस दौर में माँ की चूड़िया बेचनी पड़ी और गुजर बसर के लिये पटकथाओं की साफ कॉपियां भी बनानी पड़ी लेकिन वे कभी भी निराश नही हुए। अक्सर वे मुस्कुराते हुए कहते कि-
यार ये मुम्बई शहर है, बाहर से आये लोगों से दो साल जद्दोज़हद मांगता है और इसके बाद बड़े प्यार से गले लगाता है।
सचिन देव वर्मन से मुलाक़ात और अच्छे दौर की शुरुआत
आखिरकार एक खुशनुमा सुबह भी आई जो जीवन पर्यन्त रौशन रही। उन दिनों सचिन देव वर्मन नये गीतकारों की खोज कर रहे थे। साहिर बर्मन दा से मिलने उस होटल में पहुँच गये जहाँ वे रुके हुए थे। वहाँ डू नॉट डिस्टर्ब का बोर्ड लगा हुआ था लेकिन साहिर इसकी परवाह किये बिना सीधे उनके रूम में चले गये और अपना परिचय देते हुए उन्हे अपने आने का मकसद बता दिये। उनके विश्वास को देखते हुए बर्मन दा ने उन्हे एक धुन सुनाई और उसपर गीत लिखने को कहा। साहिर ने कहा कि आप हारमोनियम पर धुन बजाइये मैं गीत सुनाता हूं। साहिर ने उस धुन के साथ ही जो गीत गाया वो इस प्रकार था…
ठंडी हवाएं, लहरा के आयें, रुत है जवां, तुम हो जवां, कैसे भूलाएं, गीत सुनकर बर्मन दा तो खुशी के मारे उछल पड़े। वे साहिर को उस जमाने के मशहूर निर्माता निर्देशक अब्दुल रशीद से मिलाने ले गये। नौजवान साहिर की जिंदगी का ये सबसे खुशनुमा लम्हा था। ये गाना नौजवान फिल्म में 1951 में लता मंगेशकर द्वारा गाया गया था।
इस तरह साहिर और बर्मन की जोड़ी इतिहास की अत्यधिक लोकप्रिय जोड़ी बन गई। 1951 से 1957 तक इस जोड़ी ने 15 से भी ज्यादा फिल्मों में हिट गाने दिये। उस समय साहिर का सीधा मुकबला शंकर-जयकिशन तथा शैलेन्द्र और नौशाद के बीच में था। साहिर ने अपने नगमों के जरिये मानवीय मन की वेदना को अभिव्यक्त किया और इसी के साथ क्रांतिकारी गीतों एवं रोमांटिक गीतों से फिल्म संगीत को लोकप्रियता की बुलंदियों पर पहुँचाया।
अमृता प्रीतम से प्रेम
साहिर की निजी जिंदगी में प्यार कभी परवान न चढ सका। ग्लैमर तथा शौहरत की दुनिया में रहने के बावजूद वे कभी किसी लड़की को जीवन संगनी नही बना पाये।
कॉलेज के दौरान महिंदर और ईशार के संग असफल प्यार का जिक्र उनकी काव्य संग्रह तल्खियां में मिलता है। महान पंजाबी कवित्री अमृता प्रीतम के प्यार में साहिर गिरफ्त हुए थे। ये एकतरफा प्यार नही था। अमृता प्रितम ने भी इसे कबूल किया है। बंटवारे के बाद जब साहिर मुम्बई में बस गये थे और अमृता दिल्ली में तब भी अमृता प्रीतम अपनी कहानियों और कविताओं के माध्यम से अपने दिल की बात साहिर तक पहुँचाती थीं। साहिर जैसे मशहूर गीतकार तथा उम्दा इंसान की मोहब्बत का परवान न चढना एक अजीब ही बात लगती है।
जावेद अख्तर का कहना है कि, “साहिर की माँ उनकी दुनिया थीं और जब किसी की माँ उस इंसान के जीवन में इतनी एहमियत ले लेती है , तो फिर वह किसी और औरत के बारे में सोचने को पाप समझने लगता है। शायद जब भी उनका किसी और से रिश्ता जुड़ता तो वह अपने आपको माँ का गुनाहगार समझने लगते थे।”
शादी ना करने पर
एकबार साहिर ने खुद इस विषय में कहा था कि, ‘मैं विवाह की संस्था के खिलाफ नही हूं, लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है , मैने कभी शादी करने की जरूरत महसूस नही की, मेरी राय में औरत और आदमी का रिश्ता केवल पति-पत्नी तक सीमित नही रह सकता। यह उसके अपनी माँ तथा बहनो के प्यार तथा स्नेह से भी जुड़ा हो सकता है।” साहिर ने ताउम्र अपनी माँ तथा दो ममेरी बहनों का ख्याल बहुत ही शिद्दत से रखा था।
लोकप्रियता
साहिर की लोकप्रियता का आलम ये था कि, वो उन दिनों लता मंगेस्कर के मेहनताने से अपना मेहनताना एक रुपया ज्यादा माँगते थे, लिहाज़ा लता जी साहिर के लिखे गीत को गाने से मना कर देती थी।
साहिर और बर्मन दा की जोड़ी 1959 में टूटने के बाद भी साहिर के पास फिल्मों की कमी नही थी। उन्होने संगीतकार नौशाद, एन दत्ता और खय्याम के साथ भी काम किया। चोपड़ा बंधुओं द्वारा बनाई गई फिल्मों में ताउम्र उनके गाने फिल्माए गये थे। 1956 में बी.आर. चोपड़ा की फिल्म नया दौर के गानों का सिलसिला जो शुरु हुआ था, वह लंबे समय तक चला।
बी. आर. चोपड़ा के छोटे भाई यश चोपड़ा तो कॉलेज के ज़माने से ही साहिर की शेरो-शायरी के फैन थे। जब 1950 में वे मुम्बई आये तो बड़े भाई ने पूछा कि किससे मिलना है तो, उन्होने साहिर से मिलने की इच्छा जाहिर की थी न की कोई हीरो या हिरोईन से। जब यश चोपड़ा ने अपनी पहली फिल्म दाग बनाई तो उसमें लिखे सभी गीतों का मेहनताना साहिर ने लेने से मना कर दिया था।
बहुत जिद्द करने पर यही कहा कि जब फिल्म हिट हे जायेगी तो जो तुम्हे ठीक लगे दे देना। बी.आर. चोपड़ा के ही समझाने पर लता मंगेशकर वापस साहिर के गीतें पर गाने लगी थीं। साहिर के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि, 1960 के पूरे दशक में उन्होने उस समय के मशहूर संगीतकारों के साथ काम को एहमियत न देते हुए नये संगीतकारों के साथ काम किया। साहिर ऐसे पहले गीतकार थे जिनका नाम रेडियो से प्रसारित फरमाइशी गानों में दिया जाता था। उन्होने ही गीतकारों के लिये रॉयलटी की भी व्यवस्था कराई।
सम्मान
फिल्म ताजमहल के लिये 1964 में उन्हे फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया था। 1976 में कभी-कभी फिल्म के गीतों के लिये उन्हे पुनः फिल्म फेयर अवार्ड से नवाजा गया था। उन दिनों ये अवार्ड फिल्म जगत का एकमात्र मशहूर अवार्ड था जिसे पाने के सपने सभी देखते थे। 1971 में भारत सरकार ने उन्हे पद्मश्री से सम्मानित किया था।
निधन
उनकी जिंदगी में एक ऐसा दौर भी आया जिससे वो धीरे-धीरे डूबते चले गये। 1976 में उनकी दिल अज़ीज अम्मी अल्लाह को प्यारी हो गईं। अभी वे अम्मी के गम से उबरे ही नही थे कि, उनके करीबी दोस्त मशहूर शायर निसार अख्तर(जावेद अख्तर के पिता) और कृश्न चंदर भी परलोक सिधार गये।
अपनी माँ के बिना साहिर खुद को अनाथ महसूस करने लगे थे और अकेले रहना पसंद करने लगे थे। उन्होंने यश चोपड़ा से कहा कि अब लिखने में मजा नही आ रहा है। रात को वे घर से बाहर भी नही निकलते थे। इस बीच उन्हे दिल का दैरा भी पड़ चुका था। आखिरकार 25 अक्टूबर 1980 को ये महान गीतकार अपने जीवन की बेमिसाल शोहरत और साथ ही सारे विवाद को छोड़कर इस दुनिया को अलविदा कह गया। लेकिन उनकी आत्मा यानि की उनके गीत आज भी अमर हैं।
मशहूर नगमे
कभी कभी का गीत मैं पल दो पल का शायर… हो या नया दौर फिल्म का गीत उड़े जब जब जुल्फें तेरी… , आज भी तरो ताजा हैं। उनके लोकप्रीय गानों की फेहरिस्त तो बहुत बड़ी है लेकिन कुछ गानों का जिक्र जरूरी है।
- किसी पत्थर की मूरत से… , नीले गगन के तले…, चलो एकबार फिर से अजनबी बन जायें..,
- फिल्म फिर सुबह होगी का गीत- वो सुबह कभी तो आयेगी… एवं आसमां पर है खुदा और जमीं पर हैं हम…, तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बनाले… या प्यासा और नयादौर के गाने सभी एक से बढकर एक हैं। लोकप्रियता के आलम में प्यासा फिल्म ने तो एक नया अध्याय ही लिख दिया था। इस फिल्म को दुनिया की 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार किया गया।
- बेटी की विदाई पर एक पिता के दर्द और दिल से दिए आशीर्वाद को उन्होंने कुछ इस तरह से बयान किया, बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले.., ये गीत आज भी बेटी की बिदाई के वक्त सबकी आंखों को नम कर देता है।
- तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा…., जैसे गीतों से समाज में आपसी भाईचारे और इंसानियत का संदेश उन्होने अक्सर दिया। उनका लिखा हर गीत एक मानक है।
- बरसात के रात की कव्वाली न तो कारवाँ की तलाश है, हास्य गीत- सर जो तेरा चकराये, देशप्रेम गीत- ये देश है वीर जवानों का, या दिल ही तो है का गीत, लागा चुनरी में दाग छुङाऊ कैसे, उनके गीतों की विविधता को दर्शाते हैं।
साहिर साहब के गीतों के साथ-साथ उनकी शेरो- शायरी भी अमर हैं। उनके कुछ शेर- ( Sahir Ludhanvi Shayari in Hindi )
वह अफसाना जिसे अंजाम तक, लाना न हो मुमकिन
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर, छोड़ना अच्छा…
तुम मेरे लिए कोई इल्जाम न ढूँढ़ो
चाहा था तुम्हे, यही इल्जाम बहुत है…
फिर न कीजे मेरी गुस्ताख निगाहों का गिला
देखिये अपने फिर प्यार से देखा मुझको…
अभी जिन्दा हूँ लेकिन सोचता रहता हूँ खल्वत में
कि अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैंने…
आज भी महफ़िलों में चाँद-चाँद लगा देते हैं।
एकबार किसी ने साहिर के लिये कहा था कि, किसी शहर के रंग में रंग जाना बहुत सहज होता है मगर साहिर ने बंम्बई को ही अपने रंग में रंग लिया। ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि, साहिर ने सिर्फ मुम्बई को ही नही वरन विश्व के अनेक लोगों के दिलों में अपनी शायरी का रंग भर दिया जो आज भी बरकरार है। उनकी रुहानी शायरी से आज भी हर कोई सराबोर है।
ऐसे मशहूर गीतकार के जन्मदिन पर उनके मशहूर गीत को गुनगुनाते हुए कलम को विराम देते हैं ऐ मेरी जोहराजबीं तुझे मालूम नही…
धन्यवाद
अनिता शर्मा
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Sanjeet Nagyan says
Thanks Anita Ji
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apka likne ka tarika bhot hi acha hai
Shreya Tripathi says
Heart touching.. Please publish an article on shayari’s of Sahir ludhyanavi,,,if possible..
We are waiting eagerly..
Thanks Gopal sir
Anita Sharma says
Thanks to all readers
Gyani Pandit says
महान शायर और गीतकार “साहिर लुधियानवी” जी ने हमें अपने मनपसन्द गाने देकर हार किसी के दिल में अपनी एक अलग ही जगा बना ली, आज भी उनके गाने उतनेही मशहूर हैं जितने की उस समय थे.उनकी याद उजागर करने के लिए धन्यवाद्………Keep it up!!!!
Vivek darji says
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NILESH says
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Ravi Kumar says
Very nice post. Keep it up.
Priyanka pathak says
अनीता जी धन्यवाद
इस पोस्ट को लिखने में ही आपने बहुत मेहनत की है। और भी ऐसी पोस्ट डालते रहिये। बहुत ही अच्छी पोस्ट बहुत ही उम्दा जानकारी।
बहुत बहुत धन्यवाद।
प्रियंका पाठक
http://dolafz.com/रूह-के-जाने-के-बाद-poetry-in-hindi/
Anita Sharma says
Thanks Priyanka
Pushpendra Kumar Singh says
Bahut hi kamal ke shayar or geetkar the sahir ludhiyanvi…….unke geet aaj bhi logo ki juban par taro taza hai or unki shayri bahut hi unnche darze ki hai………….
Sudhir Kumar Singh says
Thanks Anita Mam For Remind/Introduce all AKC Followers to a greatest Author. We always Love him (Sahir Sahab)